प्रचार खिडकी

गुरुवार, 28 जनवरी 2010

खुद को ढोता ....आदमी

ताउम्र यूं,
खुद ही,
अपने को ,
ढोता रहा आदमी।

जब भी दिए,
जख्म औरों को,
खुद ही,
रोता रहा आदमी॥

पैशाचिक दावानल में,
कई नस्लें हुई ख़ाक,
लकिन बेफिक्र,
सोता रहा आदमी॥

जानवर से इंसान,फिर ,
इंसान से हैवान,ना जाने,
क्या से क्या,
होता रहा आदमी॥

ज्यों,ज्यों, बहुत बड़ा, बहुत तेज़,
बहुत आधुनिक बना,
अपना ही आदमीपन,
खोता रह आदमी॥

हाँ आज सचमुच ही मुझे इस भीड़ में कोई आदमी नहीं मिलता.


10 टिप्‍पणियां:

  1. पैशाचिक दावानल में,
    कई नस्लें हुई ख़ाक,
    लकिन बेफिक्र,
    सोता रहा आदमी॥

    -जबरद्स्त! बहुत गजब!

    जवाब देंहटाएं
  2. आदमी बड़ा हो गया है , आदमीयत खो गई है

    जायज फिक्र है आपकी

    जवाब देंहटाएं
  3. बस हम आदमी बने रहें, यही प्रयत्‍न रहे।

    जवाब देंहटाएं
  4. "हाँ आज सचमुच ही मुझे इस भीड़ में कोई आदमी नहीं मिलता."

    देखो शक्ल से भी अब,
    लग 'खोता' रहा आदमी !

    जवाब देंहटाएं
  5. sach kaha aaj ki duniya mein aapko sab milega bas sirf ek aadmi hi nhi milega.

    जवाब देंहटाएं
  6. जानवर से इंसान,फिर ,
    इंसान से हैवान,ना जाने,
    क्या से क्या,
    होता रहा आदमी॥
    बहुत सच कहा आप ने इस कविता मै, सच मै आज आदमी खॊ गया है कही

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत सच कहा आप ने इस कविता मै, सच मै आज आदमी खॊ गया है कही

    जवाब देंहटाएं
  8. ज्यों-ज्यों इंसान बड़ा...बहुत बड़ा होता जाता है...उसका लालच और अधिक तेज़ी से बढ़ता जाता है और सब कुछ पा लेने के इस अंधे लालच में वो कई ऐसे कृत्य भी कर डालता है जो उससे उसके इंसान होने का हक भी छीन लेते हैं ...

    सारगर्भित रचना

    जवाब देंहटाएं

टोकरी में जो भी होता है...उसे उडेलता रहता हूँ..मगर उसे यहाँ उडेलने के बाद उम्मीद रहती है कि....आपकी अनमोल टिप्पणियों से उसे भर ही लूँगा...मेरी उम्मीद ठीक है न.....

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