प्रचार खिडकी

गुरुवार, 19 फ़रवरी 2009

कुछ यूँ ही

कहीं न कहीं,
कुछ तो,
भयंकर पनप रहा है॥

तपिश महसूस,
कर रहा हूँ, मैं भी,
शहर का हरेक,
कोना दहक रहा है॥


किस किस को दें दोष,
बहक जाने का,
हर होठों से,
पैमाना छलक रहा है॥

कैसे निश्चिंत हो,
भविष्य उसका,
जिसका,
वर्तमान ही भटक रहा है...

2 टिप्‍पणियां:

टोकरी में जो भी होता है...उसे उडेलता रहता हूँ..मगर उसे यहाँ उडेलने के बाद उम्मीद रहती है कि....आपकी अनमोल टिप्पणियों से उसे भर ही लूँगा...मेरी उम्मीद ठीक है न.....

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