प्रचार खिडकी

गुरुवार, 29 नवंबर 2007

कहाँ हैं महिला शाशाक्तिक्करण वाले

पिछले कुछ दिनों से कुछ बहुत सारे घटनाएं बेशक अलग अलग हो रही हैं मगर लगभग एक ही चरित्र और परिणाम के कारण उन्होने बहुत ज्यादा व्यथित और क्रोधित तो किया ही है साथ ही बहुत सी बातें सोचने पर मजबूर कर दिया है।

हाल ही में गोहाटी में एक प्रदर्शन के दौरान एक आदिवासी महिला को कुछ लोगों ने सरेआम नग्न करके पीटा और दौड़ाया।

इस देश कि प्रथम महिला आ ई पी एस किरण बेदी ने आखिरकार प्रशाशन की उपेक्षा से क्शुब्द हो कर अपने ईस्तेफे की पेशकश कर दी।

एक महिला लेखिका अपनी जान माल की सुरक्षा की खातिर दर दर भटक रही है, और उसको लेकर राजनीती तो की जा रही है मगर उसके लिए कोई आगे नहीं आ रहा।


अब ज़रा इन बातों पर भी गौर फरमाइये,

इस देश में अभी राष्ट्रपति एक महिला ही है।

इस देश को चलाने वाली (चाहे परोक्ष रुप में ही सही ) भी एक महिला ही है।

इस देश के बहुत से राज्यों में मायावती, शेइला दिक्सित, विज्यराजे सिंधिया, जयललिता ,आदि जैसी कद्दावर
राज्नेत्रियाँ हैं।


तो क्या समझा जाये इससे? कहाँ हैं महिला अधिकारों की समानता का दावा करने वाले?
कहाँ हैं वो लोग जो कहते नहीं थकते कि नहीं अब वो बात नहीं रही आज कि महिला ताक़तवर है आगे है।

सच तो ये है कि अब भी बहुत कुछ या कहूँ लगभग सब कुछ वैसा का वैसा ही है।

आपको क्या लगता है ?

बुधवार, 28 नवंबर 2007

विवादों पर जीने वाले परजीवी

बहुत पहले एक रेल यात्रा के दौरान एक चित्रकार महोदय से औपचारिक बातचीत में मैंने यही पूछा था कि एक कलाकार की कला किसके लिए होती है समाज के लिए या खुद उसके लिए? उन्होने जो भी जितने देर भी बहस की उसका निष्कर्ष यही था कि कला , कलाकार के लिए होती है। मकबूल जी की तूलिका यदि रामायण-महाभारत को चित्रित कर सकती है तो आख़िर वो कौन से कारण हैं कि उन्हे देवी को अपमानजनक रुप में चित्रित करने दो मजबूर होना पडा। तस्लीमा जे, हों या सलमान रश्दी जी, उन्होने जब भी जिस भी समस्या को उठाया है क्या बिना किसी धार्मिक आस्था पर चोट पहुँचाये या विवाद पैदा किये उसे सबके सामने लाना नामुमकिन था। और आजकल तो किताब हो या फिल्म, विज्ञापन हो या भाषण, विवाद -आलोचना के बिना बेकार है, स्वाद हीन।

हाँ, मगर विशेषताओं से युक्त इन तमाम प्रबुद्ध कलाकारों से एक प्र्दाष्ण पूछने का मन तो करता है कि यदि कला सिर्फ कलाकार के लिए है तो फिर समाज से प्द्रतिक्रिया ,सम्मान, आलोचना की अपेक्षा क्यों ?
क्या ये विवादों पर जीवित रहने वाले परजीवी लोग हैं ? आप ही बतायें ।

बुधवार, 14 नवंबर 2007

मोबिलीताईतिस

उस दिन अचानक मित्र के साथ एक अनजान युवक को देखा तो थोडी हैरानी हुई । कारण था कि उसके गर्दन एक तरफ को झुकी हुई थी। मैंने सोचा कि बेचारा भरी जवानी में कैसी बीमारी झेल र्दहा है। उत्सुकतावश मित्र से पूछा तो उसने बताया कि उसे मोबालीताईतिस हो गया है।

मैं सकपकाया, ये कौन सी बीमारी है यार, क्या ये भी विदेशों से आयी है ?

अरे नहीं, नहीं, यार मोबलीताईतिस तो शुद्ध अपने देश के बच्चों की खोज है। देख आजकल तुने अक्सर बाईक पर,कारों में, यहाँ तक कि रिक्शों पर भी लोगों को गर्दन को एक तरफ जुकाए , कान से मोबाईल चिपकाए बातें करते देखा होगा। धीरे धीरे जब यही क्रिया आदत बन जाती है तो वह कहलाता है मोबालीताईतिस।

मजे कि बात तो ये है कि इसकी रोकथाम के लिए हँड्स फ्री कित नामक उपकरण उपलब्ध है , मगर चूँकि ये फैशानाब्ले रोग है इसलिए उसका इस्तेमाल कोई नहीं करता। अलबत्ता इस रोग का एक साइड एफ्फेक्ट रोड एक्सीडेंट के रुप में सामने आया है।

सबसे अहम बात ये कि हमारी इस खोज पर विश्व चिकित्सा जगत भी जल्भुन गया है क्योंकि लाख कोशिशों के बावजूद उनके यहाँ मोबईलीताईतिस का ये फैशोनाब्ले वाईरुस नहीं पहुंच पाया है।

" कमाल है यार "मेरे मुँह से सिर्फ इतना निकला.

मंगलवार, 13 नवंबर 2007

कैफे में ब्लोग्गिंग की मजबूरी

मुझे ये नहीं पता कि ब्लोग्गिंग करने वाले सरे मित्रगन मेरी तरह ही समय बचाकर स्य्बेर कैफे में जाकर ब्लोग्गिंग करते हैं या फिर कि अपने कंप्यूटर पर लिखते हैं। क्य्बेर कैफे में जान मेरी मजबूरी है। न न ये नहीं है कि कंप्यूटर खरीद नहीं सकता बल्कि उसके बाद यदि किसी तरह कि कोइ तकनीकी खराबी आ गयी तो उससे डरता हूँ,
फिर सोचता हूँ कि यदि मेरे घर में कंप्यूटर होता तो शायद ब्लोग्गिंग जगत में पढ़ने वाले बहुत जल्दी यही सोचने लगते कि यात्र इस आदमी को लगता है कि कोइ काम नहीं है । पर मैं भी क्या करूं मन में इतनी साड़ी बातें एक साथ चलती रहती हैं कि लगता है जब तक आप लोगों से शेयर ना करूं मेरा मन नहीं भरेगा।

मगर पिछले कुछ दिनों से लगातार यही सोच रहा हूँ कि इस ब्लोग जगत पर हम जैसे कुछ लोगों के खूब लिखने या कुछ ना लिखने से क्या बहुत कुछ बदल जायेगा या कि उसकी सार्थकता कहाँ और कितनी होगी। हाँ मगर इतना तो जरूर है कि ये एक ऐसा मंच बन गया है जो शायद बहुत जल्दी ही एक शाशाक्त मुकाम हासिल कर लेगा। परन्तु फिर भी मन में बहुत सारी आशंकाएं हैं , क्या आप कुछ बता सकते हैं इस बारी में?

आपके अनुभवों का इंतज़ार है मुझे।

रविवार, 11 नवंबर 2007

सबको होता है प्यार

हाँ, मैं जानता हूँ और मानता हूँ कि इस धरती पर ऐसा कोइ नहीं है, जिसे प्यार नहीं होता। नहीं, नहीं आप ये मत सोचना कि मैं किसी और प्यार की बात कर रह रह हूँ.हाँ पता है, पिता के प्रेम को स्नेह, माँ के प्रेम को वात्सल्य और बहन के प्रेम को ममता कहा जा सकता है मगर इससे अलग मैं ऊस प्रेम की बात कर रहा हूँ जिसे इश्क,प्यार,मोहब्बत और ना जाने किस किस नाम से जाना जाता है।

जिन्दगी में कभी ना कभी, कहीं ना कहीं किसी ना किसी से सबको ही ये प्यार होता है.मैं जब सातवीं कक्षा में था तो चौथी कक्षा में पढ़ने वाली और स्चूल बस में मेरे साथ जाने वाली स्वीटी, जब परेशान होती तो में भी चिंतित रहता था। वो हंस्टी थी तो में भी हंसता था .वो सब क्या था क्योंकि तब शायद हमें प्यार का मतलब भी नहीं पता था।

सबसे बड़ा सच तो ये है कि हमें अपने अंदर ,अपने आप ये एहसास हो जाता है कि प्यार हो गया है। चाहे इजहारे मोहब्बत हो या इनकार मिले मगर इश्क तो इश्क है। हाँ आजकल प्रेम का मतलब बदल रहा है, या कहूँ कि प्यार तो वही है, हम खुद बदल रहे हैं। क्या आपको भी ऐसा लगता है.

बुधवार, 7 नवंबर 2007

पहला कबाड़ - रिश्ते

हाँ सच ही है आज के युग में रिश्ते नाते जैसी बातें कबाड़ के अलावा कुछ नहीं है। रिश्ते खून के हों, मन के हों ,जाने-पहचाने हो , अनजाने हों कैसे भी हों। पहली बात तो ये कि बिना किसी उद्देश्य के ,या कहें कि स्वत के रिश्ते न तो बनते हैं न बने रहते हैं। दुसरी ये कि इनके टूट जाने या ना बने रहने का कोई कारण हो ये जरूरी नहीं । कभी कभी तो ये अकारण ही दम तोड़ देते हैं । कुछ रिश्तों को हम इतना तंगहाल कर देते हैं कि उनका दम खुद ही निकल जाये। हां जब खून के रिश्ते सिसकते हुए आख़िरी सांस लेते हैं उन सिस्कारियों की गूज्ज़ ता उम्र गूंज्ज़ती रहती है।

यूं भी आजकल लोगों के पास इन सबके लिए सोचने कि फुरसत कहाँ है।
कहते हैं दिवाली रिश्तों का त्यौहार है मगर क्या सिर्फ उन रिश्तों का जो उपहार लेने-देने और खुशियाँ बाटने तक सीमित रहता है। वही रोशनी की चकाचौंध ,वही पटाखों का धूम-धडाम , वही बाज़ार, वही खरीददारी तो फिर इस दिवाली में कुछ अलग कहाँ हैं । चलें क्यों न ढूँढे कुछ पुराने रिश्ते। कोई बिछड़ा, कोई रूठा मिल जाये कहीं.

रविवार, 4 नवंबर 2007

तितलियाँ नहीं मिलती.

बेटे को पढाते पढाते जब उसे किताब में तितली दिखाई तो वह जिद करने लगा कि पापा मुझे भी तितलियाँ दिखाओ। मैंने सोचा ये क्या मुश्किल काम है । बेटे को लेकर पार्क की तरफ चल पड़ा। रास्ते में मैं उसे बताने लगा कि कैसे स्कूल से वापस आते समय हम भी तितलियों और टिड्डियों से खेलते थे, कोयल की कूक से अपनी कूक मिलाते थे, तोतों के झुंड के पीछे दौड़ते थे और गिलहरियों को दौडा कर पेड़ पर छाती थे। बेटा रोमांच और ख़ुशी से भर गया फिर थोडे अचरज में बोला, पापा हमें क्यों नहीं मिलते ये सब।

मैं सोचने लगा, हाँ, सचमुच अब कहाँ मिलते हैं ये सब। धरती वही, अम्बर वही, पानी वही, धुप वही, तो फिर क्या बदल गया। नहीं शायद सब कुछ बदल गया है आज, धुप, हवा,पानी ,धरती, सब कुछ।

पार्क पहुँचा तो वही हुआ जिसका डर था। तितलियाँ नहीं मिली.

शनिवार, 3 नवंबर 2007

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

सड़क तुम क्यों नहीं चलती

उस दिन अचानक ,
चलते,चलते,
पूछ बैठा,
काली पक्की सड़क से,
तुम क्यों नहीं चलती,
या कि क्यों नहीं चली जाती,
कहीं और,

वो हमेशा कि तरह,
दृढ ,और सख्त , बोली,
जो मैं चली जाऊं ,
कहीं और, तो,
तुम भी चले जाओगे,
कहीं से कहीं,

और फिर ,
कौन देगा,
उन, कच्ची पगडंडियों को ,
सहारा,
और,


टूट जायेगी आस
उन लाल ईंटों से,
बनी सड़कों की , जो,
बनना चाहती हैं ,
मुझ सी,
सख्त और श्याम॥


झोलटनमाँ

शुक्रवार, 2 नवंबर 2007

किस्म किस्म के कबाड़.(ब्लोग kaa मकसद )

यूं तो ये काम सुबह सुबह घूमने वाले सैकड़ों कबाडियों का होता है मगर बदकिस्मती या खुस्किस्मती से , वे बेचारे तो यहाँ तक नहीं पहुंच सकते इसलिए उन्होने मुझे अधिकृत किया है कि यहाँ मैं उनका authorized बन्दा बनके किस्म किस्म के कबाड़ इकठ्ठा करूं । इसलिए मुझे ये कबाड़खाना ब्लोग बनाना पड़ा ।
वैसे जब ये बात मैने अपनी पत्नी को बताई तो उनका कहना था कि , ये क्यों नहीं कहते कि अपने लिए नया घर ढूँढने जा रहे हो । यहाँ घर पर तो पेपर, किताब , मैगज़ीन , सबसे दिन भर कबाड़ ढूँढते ही rahtey हो वहाँ भी जाकर कबाड़ ही फैलाओगे । सच है खानदानी कबाड़ी लगते हो।

अब क्या करें मेरी नज़र में उनके सारे सीरियल कबाड़ है वो भी ऐसे बदबूदार कि संदांध आते है उनसे तो मुझे, खैर,। वैसे तो हमारे आसपास ही किस्म किस्म का इतना कबाड़ फैला है कि हम नज़र डाले ना डाले पता चल ही जाता है । लेकिन यहाँ में आपको ऐसे ऐसे कबाड़ और कबाडियों से मिलवाने वाला हूँ कि आप कहेंगे कि यार ये कबाड़ तो reecylcle होने लायक है ।
तो बस देखते जाइये और पढ़ते जाईये।
झोल तन माँ

गुरुवार, 1 नवंबर 2007

अथ बन्दर नामा

राजधानी में बंदरों ने ऐसा उत्पात मचाया कि जैसा श्री हनुमान जी ने अशोक वाटिका में मचाया था तो एकबारगी संदेह हुआ कि कहीं ऐसा तो नहीं कि सचमुच ही कोई दुष्ट किसी सीता जी को हर के ले आया । फिर सोचा धत तेरे की , किसी भी ऐन्गेल से ये दिल्ली अशोक वाटिका नहीं हो सकती और फिर जब राम ही नहीं (जैसा कि हमारी सरकार भी मानती है ) तो फिर सीता कैसे हो सकती है। खैर,

समस्या बढ़ती ही जा रही थी सो निर्णय लिया गया कि किसी प्रतिनिधि को वार्तालाप के लिए वानर सेना के पास भेजा जाये । फिर तय हुआ कि दारा सिंह (चुंकि फिल्मों में हनुमान जी का रोल सबसे ज्यादा बार उन्होने ही किया था ) को दूत बनाकर भेजा जाये । दारा सिंह वानर समूह के पास पहुंच गए :


हे बन्द्रू गैंग , ये आप लोग वन-उपवन को त्याग कर कहाँ यहाँ दिल्ली में भटकने के लिए आ गए हैं ?


इतना सुनते ही बन्दर भड़क कर कहने लगे :- क्यों बे , जिंदगी भर हमारी शक्ल सूरत का मैक अप करके कमाया - खाया, अब आया है हमीं से पूछने। और तुममें हममें क्या फर्क है एक बस पूँछ का ही न , तो बस हम भी आ गए। वैसे भी तुमने कोई वन जंगल छोडा है हमारे लिए खाली , यहाँ भी जो गार्डेन वगिरेह बनाए हैं उनमे लफंगे लड़के और लड़कियां घूमते रहते हैं।
लेकिन सुनो इस बार हम थोडा सीरिअस हो कर बात करने आये हैं । ये क्या सुन रहे हैं तुम एह्सान्फरामोशों ने राजा राम को भुला दिया। और जो हमरे परेंट्स इतना बढिया पुल बनाकर गए थे उसे तोड़ने पर आमादा हो । तुम्हारे पिताजी भी आज की तारीख में ऐसा पुल बना सकते हैं । और कभी गलती से हमरे छोटे बंदर तुम्हारे कांच तोड़ दें या तुम्हारी पानी की टंकी में नहा लें तो तुम लोग कितना लड़ते हो।


सुन बी इंसानी बन्दर इस बार हम भी अटल जी की तरह आर-पार की लड़ाई लड़ने आये हैं बता देना सबको॥
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