प्रचार खिडकी

शनिवार, 30 जनवरी 2010

कोशिशें अक्सर, मेरी, नाकामियां बन जाती हैं

मैं जो करता हूँ,
सब वो,मेरी ,
गलतियां कहलाती हैं।

कोशिशें अक्सर,
मेरी,
नाकामियां बन जाती हैं॥

जब भी थामता हूँ,
हाथ किसी का, उसकी,
दुश्वारियाँ बढ़ जाती हैं॥

जब बांटता हूँ,
दर्द किसी का,
रुस्वाइयां बन जाती हैं॥

मगर मैं फ़िर भी चलता रहता हूँ.

शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

भीड़ से भरी ये दुनिया,
फ़िर भी है जल्दी में दुनिया,
बेचैनी सी छाई ,
संसार में है,
मैं क्यों रहूँ,
परेशान,
कि जानता हूँ,
आज हर आदमी,
कतार में है॥

कोई खुशी -गम के,
कोई सुख-दुःख,
कोई लड़ रहा है,
जिंदगी से,
कोई मौत के,
इंतज़ार में है॥

कोई धारा के बीच,
कोई तूफानों में,
किसी को मिला,
मांझी का साथ,
किसी के सिर्फ़,
पतवार है हाथ,
सच है तो इतना,
हर कोई मंझधार में है॥

सबकी सीरत एक सी,
और सूरत पे,
अलग-अलग,
चढा हुआ नकाब है,
किसी एक की बात,
क्यों करें, जब,
पूरी कौम ही ख़राब है।
फर्क है तो ,
सिर्फ़ इतना कि,
कोई विपक्ष में है बैठा,
कोई सरकार में है॥

हर कोई आज किसी न किसी कतार में है , क्यों है न ????

गुरुवार, 28 जनवरी 2010

और वे अब भी लड़ रहे हैं........

सफर दर,
सफर,
रास्ते,ह
कटते गए॥

छोड़ दी,
जबसे,
शिकायत की आदत,
फासले ,
मिटते गए॥

मैंने तो ,
बस,
संजोई थी,
चाँद यादें,
घड़ी भर को,
बंद की पलकें,
सपने,
सजते गए॥

चला था जब ,
तनहा था,
और कभी,
किसी को,
पुकारा भी नहीं,
पर बन गया,
काफिला जब,
मुझ संग,
सभी अकेले,
जुड़ते गए॥

हादसा कुछ,
यूं हुआ,
हमें, लड़खाते देख,
उन्होंने सम्भाला,
हम होश में आए,
सँभलते गए,
मगर वो,
गिरते गए॥

कुछ लोगों ने,
सबसे कहा,
तुम क्यों साथ-साथ,
रहते हो,
जीते हो, मरते हो,
तुम सब ,
अलग हो,
बस फ़िर,
सब आपस में,
लड़ते गए॥

और वे अब भी लड़ रहे हैं........

खुद को ढोता ....आदमी

ताउम्र यूं,
खुद ही,
अपने को ,
ढोता रहा आदमी।

जब भी दिए,
जख्म औरों को,
खुद ही,
रोता रहा आदमी॥

पैशाचिक दावानल में,
कई नस्लें हुई ख़ाक,
लकिन बेफिक्र,
सोता रहा आदमी॥

जानवर से इंसान,फिर ,
इंसान से हैवान,ना जाने,
क्या से क्या,
होता रहा आदमी॥

ज्यों,ज्यों, बहुत बड़ा, बहुत तेज़,
बहुत आधुनिक बना,
अपना ही आदमीपन,
खोता रह आदमी॥

हाँ आज सचमुच ही मुझे इस भीड़ में कोई आदमी नहीं मिलता.


सोमवार, 25 जनवरी 2010

पिछली रात, शहर की, हर आँख, रोई है

इतने निष्ठुर,
इतने निर्मम,
ये बच्चे,
अपने से नहीं लगते,
फ़िर किसने ,
ये नस्लें ,
बोई हैं॥

किस किस के ,
दर्द का,
करें हिसाब,
लगता है,
पिछली रात,
शहर की,
हर आँख,
रोई है॥

सपनो का,
पता नहीं,
मगर नींद तो,
उन्हें भी,
आती है,
जो ओढ़ते हैं,
चीथरे, या ,
जिनके जिस्म पर
रेशम की,
लोई है॥

क्या क्या,
तलाशूं , इस,
शहर में अपना,
मेरी मासूमियत,
मेरी फुरसत,
मेरी आदतें,
सपने तो सपने,
मेरी नींद भी,
इसी शहर में,
खोई है॥

ये तो ,
अपना अपना,
मुकद्दर है, यारों,
उन्होंने , सम्भाला है,
हर खंजर अपना ,
हमने उनकी,
दी हुई,
हर चोट,
संजोई है..

रविवार, 24 जनवरी 2010

वो आखिरी रात


कहीं पढ़ा सुना था कि, जिंदगी बहुत छोटी है, मोहब्बत के लिए भी और नफरत के लिए भी और शायद इसीलिए किसी ने कहा भी है कि ,

दुश्मनी करना भी तो इतनी जगह जरूर रखना कि सामने पड़ो तो नज़रें चुरानी न पडें।

मगर शायद ये बात समझते समझते बहुत देर हो गयी या यूं कहूँ कि उम्र के उस पड़ाव पर बहुत कम लोग ये बातें समझ पाते हैं और मैं उन में से नहीं था। बात उन दिनों की है जब मैं अपनी दसवीं की परीक्षाओं के बाद खेल कूद में लगा हुआ था। हम सब दोस्त एक जगह इकठ्ठा होते और फ़िर आगे का कार्यक्रम तय होता और वो एक जगह हम पहले ही तय कर लेते थे। तब जाहिर सी बात है कि आज की तरह न तो कोई शौपिंग मॉल होता था न कोई सायबर कैफे न ही कोई कौफ़ी हाऊस इसलिए किसी न किसी दोस्त का घर ही हमारा मिलन स्थल बन जाता था और वहाँ थोडा सा उस दोस्त के मम्मी पापा को तंग करके हम आगे निकल जाते थे। उन दिनों खेल कूद का दौर था, अजी नहीं सिर्फ़ क्रिकेट की मगजमारी नहीं थी, नहीं ये नहीं कहता कि नहीं थी मगर दूसरे खेल भी हम मजे में खेला करते थे, सर्दियों की रातों में बैडमिंटन खेलना अब तक याद आता है। मगर कुछ दिनों से हमारे बीच में वोलीबाल खेलने का एक क्रेज़ सा बन गया था। सभी लोग दो टीमों में बाँट कर खूब खेलते थे और पसीने में तर होकर शाम के गहराने तक घर वापस लौट जाते थे।

अक्सर खेल ख़त्म होने के बाद , थोड़ी देर सुस्ताने के लिए जब बैठते थे तो पहला काम तो ये होता था कि ये तय करें कि कल किसके घर मिलना है , दूसरा ये कि आज कौन एकदम बकवास खेला फ़िर थोड़ी गपशप । यहाँ ये बता दूँ कि हम लोगों के बीच कभी अपने परीक्षा परिणामों की चर्चा नहीं होती थी ,शायद उसका कारण ये था कि तब आज के जैसा तनावग्रस्त कर्फ़्यू जैसा माहौल नहीं बनता था। अमर ,मेरे दोस्तों में थोडा ज्यादा करीब था और सबसे ज्यादा मेरी उसीसे पटती थी। उसका कारण एक ये भी था कि हम दोनों के घर एक ही गली में थे। अक्सर खेल के बाद जब हम दोनों घर लौटते थे तो एक ही साथ और हमेशा उसके साइकल पर लौटते थे । उस दिन अचानक अमर कोई बात कहते कहते बोल पड़ा कि , यार तुने, कैलाश की छोटी बहन को देखा है , कितनी सुंदर है "

मुझे नहीं पता कि ऐसा उसने क्यों कहा , मगर मैं उसके ये कहने से बिल्कुल अवाक् था। क्योंकि कैलाश हमारे साथ पड़ने वाला हमारा दोस्त था और उन दिनों दोस्त की बहन , सिर्फ़ बहन ही होती थी और हम समझते भी थे। अपने घर आने पर मैं चुपचाप घर की ओर चल दिया। अगले दिन से उसकी मेरी बातचीत बंद हो गयी। दोस्तों ने लाख पूछा , उससे भी और मुझसे भी मगर बात वहीं की वहीं रही। लगभग एक या सवा साल तक हम सभी दोस्तों की बीच रहते हुए भी कभी आमने सामने नहीं हुए । इस बात का मुझे कोई मलाल भी नहीं था ।

एक दिन अचानक मुझे पता चला कि कैलाश की उसी बहन की शादी , अमर के फुफेरे भैया से हो रही है और चूँकि कैलाश के पिताजी नहीं थे इसीलिए उसके घर के हालत को देखते हुए अमर ने ही ये रिश्ता करवाया था। मेरा दिल बुरी तरह बैचैन था अमर से मिल कर माफी मांगने के लिए भी और अपनी किए पर शर्मिन्दा होने के कारण भी। मैं अमर के घर गया उसकी मम्मी मुझे इतने दिनों बाद अचानक देख कर पहले चौंकी फ़िर खुशी से आने को कहा। उन्होंने बताया कि अमर उसी रिश्ते के सिलसिले में बाहर गया हुआ है और देर रात तक घर लौटेगा। मैंने उन्हें कहा कि अमर के लौटने पर उसे जरूर बता दें कि मैं आया था, वैसे मैं सुबह आकर मिल जाऊँगा। मुझे उससे कुछ जरूरी बात कहनी है।

उन दिनों फोन का चलन नहीं था तो मोबाईल का कौन कहे। अगली सुबह उठता तो गली में अफरा तफरी का आलम था । हर कोई बदहवास सा भागा जा रहा था। मैंने साथ वाले छोटे लड़के से पूछा कि अबे क्या हुआ कोई चोरी वोरी हुई है क्या , या कहीं झगडा हुआ है ।

नहीं भैया, वो शर्मा जी का बेटा था न अमर , अरे जिससे कभी आपकी दोस्ती थी। सुबह नहाते समय बाथरूम में गिर गया । सर की सारी नसें फट गयी, मर गया बेचारा।

आज तक उस रात की दूरी मुझे सालती है और शायद ता उम्र सालेगी। इश्वर से दुआ करता हूँ कि अगले जन्म में किसी भी रूप में अमर को मुझसे जरूर मिलाना ताकि एक बार माफी मांग सकूं.और अब इस जन्म के लिए किसी से क्षमा मांगने के लिए रात का इंतज़ार नहीं करूंगा , ये सोच लिया है ..............

शनिवार, 23 जनवरी 2010

गैरों से दुश्मनी की, कहाँ है फुरसत, हम तो अपनों से ही, उलझते जा रहे हैं।


मर रहा है ,
हर एहसास आज,
और रिश्ते भी ,
दरकते जा रहे हैं॥

अब ख़ुद पर बस नहीं,
कठपुतली , बन,
वक्त के साथ,
थिरकते जा रहे हैं॥

लगे तो रहे, ताउम्र,
पर जाने,निपटाए काम,
कि हम खुद ही ,
निपटते जा रहे हैं॥


गैरों से दुश्मनी की,
कहाँ है फुरसत,
हम तो अपनों से ही,
उलझते जा रहे हैं।

न खते-पैगाम,
न दुआ सलाम,
युग हो रहा है वैश्विक,
हम,सिमटते जा रहे हैं॥

चाहा ये कि रहे साथ सिर्फ़ मुहब्बत,
पर खुदगर्जी और नफरत भी मुझसे,
लिपटते जा रहे हैं॥

सपने पाल लिए इतने की,
भिखारियों की मानिंद,
घिसटते जा रहे हैं॥

आंखों ने रोना छोडा,
हमने भी सिल लिए लब,
जख्म ख़ुद ही अब तो ,
सिसकते जा रहे हैं॥

कैसे कोसूं अब,
इस पापी दुनिया को,
जब मुझमें भी सभी पाप,
पनपते जा रहे हैं॥

शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

गुनाहों कि फेहरिस्त, किसी को दिखानी नहीं होती



रोज़ दिखते हैं,
ऐसे मंज़र कि,
अब तो ,
किसी बात पर ,
दिल को,
हैरानी नहीं होती॥

झूठ और फरेब से,
पहले रहती थी शिकायत,
पर अब उससे कोई,
परेशानी नहीं होती॥

रोज़ करता हूँ ,
एक कत्ल,
कभी अपनों का,
कभी सपनो का,
बेफिक्र हूँ ,
गुनाहों कि फेहरिस्त,
किसी को दिखानी नहीं होती॥

लोग पूछते हैं,
बदलते प्यार का सबब,
कौन समझाए उन्हें,
रूहें करती हैं, इश्क,
मोहब्बत कभी,
जिस्मानी नहीं होती॥

सियासतदान जानते हैं,
कि सिर्फ़ उकसाना ही बहुत है,
शहरों को ख़ाक करने को, हर बार,
आग लगानी नहीं होती॥

पाये दो कम ही सही,
पशुता में कहीं आगे हैं,
फितरत ही बता देती है,
नस्ल अब किसी को अपनी,
बतानी नहीं होती॥

गुरुवार, 21 जनवरी 2010

इक दिन ,, मैं खुद को, इंसान बना लूंगा

कोशिश मेरी,
जारी है,
इक दिन ,
मैं खुद को,
इंसान बना लूंगा॥

जब्त कर लूंगा ,
सारा गुस्सा ,
और नफरत भी,
भीतर ही अपने,
अभिमान दबा दूंगा॥

तुम रख लेना,
मेरे हिस्से की,
खुशी का,
कतरा-कतरा,
तुम्हारे सारे,
ग़मों को अपना,
मेहमान बना लूंगा॥

उखड जायेंगे,
सियासतदानों के,
महल और,
मनसूबे भी,
बेबसों की,
आहों को वो,
तूफान बना दूंगा॥

तुम डरो न,
की कहीं ,
मेरे हमनाम,
बन कर,
बदनाम ना हो जाओ,
जब कहोगे,
खुद को, तुमसे,
अनजान बना लूंगा॥

बेशक मुझे,
बड़े नामों में,
कभी गिना ना जाए,
बहुत छोटी ही सही,
मगर अपनी,
पहचान बना लूंगा।

कोशिश जारी है और आगे भी रहेगी...

बुधवार, 20 जनवरी 2010

चंद पंक्तियां बस और क्या !!!

यूं तो हम,
गर्दिशों की रेत से भी,
इक बुलंद इमारत'
खडी करने का,
माद्दा रखते हैं।

पर क्या करें '
कि मजबूर हैं हम,
लोग उम्मीद तो '
हमसे ,इससे भी '
ज्यादा रखते हैं॥

वो जानते हैं कि ,
मैं तोड़ देता हूँ,
सभी कसमें, और वादे,
फिर भी ,जाने क्यों'
हर बार मुझसे इक,
नया वादा रखते हैं॥

उन्हें शक है ,
मेरी मयकशी का,
इसलिए क्यों ना पीना हो,
पूरा मयखाना भी,
मगर हर बार,
जाम हम ,
अपना आधा रखते हैं..



कुछ उजडा हुआ सा


पेड़ के पत्ते,
से लिपटे,
ओस की बूँद ,
के आरपार,
जो की,
देखने की कोशिश,
इक इन्द्रधनुष,
मिला,
छितरा हुआ सा।


खुद में समा,
जब खुद को ,
टटोला,
अपने को,
तलाशा,
तो पाया,
इक पुलंदा,
बिल्कुल ,
बिखरा हुआ सा॥

बहुत बार ,
सजाया-संवारा,
वो आशियाना,
मगर,
हर बार ,
तुम बिन ,
लगा वो,
घरौंदा,
उजड़ा हुआ सा॥


अतीत की खिडकी

अतीत की,
इक झरोखा ,
जबसे,
अपने अन्दर,
खोला है॥

आँगन के,
हर कोने पे,
टंगा हुआ,
बस,
खुशियों का,
झोला है॥

तोतों के,
झुंड मिले,
तितलियों की,
टोली भी,
बरसों बाद ,
सुन पाया,
मैं कोयल की,
बोली भी॥

आम चढा ,
अमरुद चढा ,
नापे कई,
नदी नाले भी,
बन्दर संग ,
मिला मदारी,
मिल गए ,
जादू वाले भी॥

नानी से फ़िर,
सुनी कहानी,
दादी ने ,
लाड दुलार किया,
गली में मिल गयी,
निम्मो रानी,
जिससे मैंने , प्यार,
पहली बार किया॥

बारिश पडी तो,
नाचे छमछम,
हवा चली और,
उडी पतंग,
मिली दिवाली,
फुलझडियों सी,
इन्द्रधनुष से,
होली के रंग॥

फ़िर इक,
हल्का सा,
झोंका आया,
खुली आँख और,
कुछ नहीं पाया॥

काश , कभी,
वो छोटी खिड़की,
यूं न बंद होने पाती,
ख़ुद खोलता,
मैं उसको,
रोज ये जवानी,
बचपन से ,
जा कर मिल आती॥

अफ़सोस की ये खिड़की सिर्फ़ तभी खुलती है जब मैं गहरी नींद में होता हूँ.



मंगलवार, 19 जनवरी 2010

हम लफ्जों में क़यामत, आँखों में सैलाब रखते हैं....((वन्स मोर रिठेलमेंट )


डरते हैं अब तो,
पास जाते उनके,
सुना है की,
वे एहसानों का हिसाब रखते हैं.......


बालों की सफेदी से,
मौत भुलावे में,
कहीं भेज न दे बुलावा,
बोतलों में नहीं ,
वे मटकों में खिजाब रखते हैं.....


कत्ल करने से गुरेज नहीं,
सजा का भी खौफ नहीं,
एक हाथ में खंज़र,
दूसरे में कानून की किताब रखते हैं....



ये अलग बात है की देखते नहीं,
नजर भर में पलट दें , तख्त-ताज,
लफ्जों में क़यामत,
आँखों में सैलाब रखते हैं....



आदमियों की भीड़ में,
इंसानों की तलाश हुई मुश्किल,
इंसान की सूरत सा ,लोग,
चेहरे पर नकाब रखते हैं..



पता नहीं आपमें से कितने मित्र ये पढ चुके हैं पहले मगर आज जाने इसे रिठेलमेंट प्रक्रिया में आज फ़िर आप तक पहुंचाने का मन किया देखिए ......कैसी लगी रिठेलमेंट

सोमवार, 18 जनवरी 2010

हर कोई ब्लॉग सजाने लगा है !!!!

हवाएं बदल रही हैं ,
रुख अपना,या कि,
मौसम का ही
मिज़ाज,गरमाने लगा है॥

जिन्हें कोफ्त होती थी,
हमारे पसीने की बू से,
हमें अब गले लगाते उन्हें,
इत्र का मजा आने लगा है ॥

गुंडों को कब डर था,
सजा पाने, जेल जाने का,
हाँ, चुनाव न लड़ पाने का,
दुःख , उन्हें भी सताने लगा है॥

कहीं भय हो, कहीं जय हो ,
बेशक अलग सबकी लय हो,
झूम के, घूम के, हर कोई,
गीत एक ही गाने लगा है॥

हर कोई दर्दे हाल पूछता है ,
सबको सरोकार है मेरी मुश्किलों से,
जिसने दिए जख्म अब तक,
अब वही उन्हें सहलाने लगा है॥

वो और था ज़माना हमारा,
कि आए , और लिख कर चल दिए,
अब कोई हमसा अनाडी कहाँ हैं,
हर कोई ब्लॉग सजाने लगा है॥

सुना है छापा पडेगा , इनकम टैक्स का,
अपने किसी ब्लॉगर के यहाँ भी,
लगता है ख़बर फ़ैल गयी है कि,
अब हिन्दी ब्लॉगर भी कमाने लगा है।


तो भाई लोगों जो जो मोटा कमा रहे हो, सब तैयार हो जाओ। अपना क्या है अपनी तो रद्दी की टोकरी है जिसमें कभी भी कुछ भी , ये देहाती बाबु कहते रहते है। हाँ छापा पड़े तो बताना जरूर, अजी हमसे कैसी शर्म .

रविवार, 17 जनवरी 2010

जब पास मेरे ........मेरे अपने नहीं आते !!!

जाने तेरी इन काली,मोटी,गहरी, आखों में,
कभी क्यों मेरे सपने नहीं आते,

तू तो ग़ैर है फिर क्यों करूं तुझसे शिक़ायत,
जब पास मेरे, मेरे अपने नहीं आते।

उन्हें मालूम है कि हर बार में ही माँग लूँगा माफी ,
इसलिए वो कभी मुझसे लड़ने नहीं आते।

जो शमा को पड जाये पता,कि उनकी रौशनी से,
परवाने लिपट के देते हैं जान, वे कभी जलने नहीं आते।

जबसे पता चला है कि यूं जान देने वालों को सुकून नहीं मिलता,
हम कोशिश तो करते हैं पर कभी मरने नहीं पाते।

जो कभी किसी ने पूछ लिया होता, मुझसे इस कलमज़ोरी का राज़,
खुदा कसम हम कभी यूं लिखने नहीं पाते।


पर किसी ने कभी पूछा नहीं इसलिए लिखे चले जा रहे हैं .

शनिवार, 16 जनवरी 2010

ताज्जुब है कि, ये , दुनिया फ़िर भी चलती है ॥

ताज्जुब है कि, ये ,
दुनिया फ़िर भी चलती है ॥

शहर की हर गली मैं, एक कोठी,
और इक झुग्गी मिलती है।
ताज्जुब है कि, ये ,
दुनिया फ़िर भी चलती है ॥


लखटकिया , फ़टफ़टिया, और सायकल,
लालबत्ती पर सारी रुकती है।
ताज्जुब है कि, ये ,
दुनिया फ़िर भी चलती है ॥


घर के एक कमरे से कातिल,
दूसरे से लाश निकलती है।
ताज्जुब है कि, ये ,
दुनिया फ़िर भी चलती है ॥


प्रेम , दोस्ती, रिश्ते की परिभाषा,
हर रोज़ बदलती है ।
ताज्जुब है कि, ये ,
दुनिया फ़िर भी चलती है ॥


गिरने के डर से ही, मैं नहीं दौडा,
वो रोज़ गिरती है, वो रोज़ संभलती है।
ताज्जुब है कि, ये ,
दुनिया फ़िर भी चलती है ॥


मैं समझ नहीं पाता, कैसे मेरे अन्दर,
प्यार भी पलता है, नफरत भी पलती है।
ताज्जुब है कि, ये ,
दुनिया फ़िर भी चलती है ॥



बेटा जिस कोख में मारे किलकारी,
बेटी के लिए उसमें मौत ही पलती है।
ताज्जुब है कि, ये ,
दुनिया फ़िर भी चलती है ॥


हाँ , और कमाल की बात है कि ये दुनिया तो फ़िर भी चलती ही रहेगी ............

शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

जाने क्यूं ...????




मैं अब तक ,
ये समझ नहीं पाया कि ,
जब हमारे पास हैं
कितनी उंगलियां ,
जिन्हें मिला कर ,
हम हाथ बना लेते हैं ,
हमारी तो ,
आदत है कि ,
हम तो तस्वीरों से भी ,
हाथ मिला लेते हैं ,
तो फ़िर जाने क्यों ,
अक्सर लोग ,
हमपे अपनी ,बस ,
एक उंगली उठा देते हैं

क्यूं यार क्यूं ......?????????.....मैं सोच रहा हूं ..... ॥

मंगलवार, 12 जनवरी 2010

जो मौन रहे , आखिर समय,, क्यों लिखेगा उनका अपराध ?




जो मौन रहे , आखिर समय,
क्यों लिखेगा उनका अपराध ?
क्यों यही विकल्प कि बनो, ग्राह्य,
या नहीं तो बन जाओ व्याध ॥

क्यों करूं व्यर्थ उर्जा अपनी,
क्यों रहूं न मैं बस मौन साध ?
हर जगह ही तो मुखर ही हूं ,
आरोपी किनका, बस एक आध ?

हो यदि तुम मुझसे और मैं तुमसा,
तो क्यों समझा मुझको अपवाद ??
अपने तूणीरों से निकाल रहे हैं विषबाण,
और रहे नित नए जो निशाने साध ॥

मुझसे पहले निश्चित ही ,
समय लिखेगा उनका अपराध,
मैं मौन रहूं ,या रहूं मुखर ,
मेरी शब्द यात्रा अवश्य चलेगी निर्बाध॥

सोमवार, 11 जनवरी 2010

सपनो को फ्रिज में रख छोड़ा है








मैंने सपने देखना,
नहीं छोडा है,
ही,
उन्हें पूरा करने की,
जद्दोजहद।
मगर फिलहाल,
जो हाल,
और हालात हैं,
उन सपनो को
फोंइल पेपर में,
लपेट कर,
फ्रिज में रख छोडा है,
मौसम जब बदलेगा,
और पिघलेगी बर्फ,
सपने फ़िर बाहर आयेंगे,
बिल्कुल ताजे और रंगीन.

शनिवार, 9 जनवरी 2010

होठों को मना लूंगा , पर आखों का क्या



होंठो को मना लूंगा मैं,
वे मान भी जाएंगे,
हमेशा की तरह,
शिकायत को भी ,
नहीं खुलेगें ,
और मौन रहेंगे,
एक दूसरे को ,
जकडे हुए जबरन ,







इन आखों का,
क्या ये तो ,
पलक झपकते ही ,
सब देख लेती हैं ,
और जो बंद ,
हो भी जाएं तो ,
जाते जाते सब ,
कह जाती हैं ,
मस्तिष्क को ,
जिसके बंद होने पर ,
सुना है कि,
इंसान मर जाता है ॥

बुधवार, 6 जनवरी 2010

अब कैसे पास करें औडीशन ( दैनिक ट्रिब्यून में प्रकाशित एक व्यंग्य )


अब कैसे पास करें औडीशन ( दैनिक ट्रिब्यून में प्रकाशित एक व्यंग्य )
चित्र को बडा करके पढने के लिए उस पर चटका लगाएं

शनिवार, 2 जनवरी 2010

बासी माल : इन द रीठेलमेंट प्रक्रिया

(फ़ोटो गूगल बाबा की फ़ैक्ट्री से , साभार )


जाने कबसे अपने आसपास,
एक छद्म संसार बना रखा है ॥


हरकतों से पकडे जाते हैं, हैवानों ने भी,
इंसान का नकाब लगा रखा है ॥


कोई बेच रहा धर्म तो कोई शर्म और ईमान,
कईयों ने तो जीवन को ही दुकान बना रखा है ॥


बेदिली की ये इंतहा है यारों , माओं ने ,
कोख को बेटियों का शमशान बना रखा है ॥


कितनी बेकसी का दौर है ये , न दिल में जगह है, न घर में,
लोगों ने मां-बाप को भी मेहमान बना रखा है ॥


लपटें सी उठ रही हैं, शहर के हर घर से ,
इसीलिए,गांव में भी इक मकान बना रखा है ॥


अभी तो उंगलियों ने रफ़्तार नहीं पकडी है ,घरवालों की तोहमत
हमने चिट्ठों को ही अपनी संतान बना रखा है ॥



नए साल पर एक रिठेल ही हो जाए तो कोई बुराई तो नहीं , यही सोच कर टोकरी में पडा बासी माल फ़िर से परोस दिया है ..................जाने आपको इसका स्वाद कैसा लगता है ..????????????

शुक्रवार, 1 जनवरी 2010



हे नूतन वर्ष ! अभिनंदन ॥

एक ही नज़ारा है चहुं ओर,
काली रात है , काली भोर,
व्यर्थ मचा हुआ है शोर ,
अब तुम आना बन शीतल चंदन ॥

हे नूतन वर्ष ! अभिनंदन ॥


बहुत हुई ये आपाधापी,
कितने बढ गए हैं पापी,
गुण लघु, अवगुण व्यापी,
बस अब न सुनूं कोई क्रंदन ॥


हे नूतन वर्ष ! अभिनंदन ॥


निज भू को हर मन डोले,
हर क्षण,हर लब बस ये बोले,
धरा अब तक लिया हमने , अब तू लेले,
कि चहक उठे हर नंदन कानन ॥

हे नूतन वर्ष ! अभिनंदन ॥


कितना अकेला इंसान हुआ,
जबकि मानव से भरी धरा ,
बस बहुत हुआ , और बहुत सहा,
अब हंसे बुढापा और मुस्काए बचपन ॥


हे नूतन वर्ष ! अभिनंदन ॥



देखते देखते एक नया वर्ष फ़िर हमारे सामने बांहे पसारे खडा है ये एहसास दिलाने के लिए कि फ़िर समय का कोरा पन्ना खुल गया , आईये उस पर एक नई इबारत , एक नया इतिहास लिखें । आप सभी को , और अपने इस हिंदी ब्लोग परिवार को नव वर्ष के शुभआगमन पर बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं । इस साल के बहुत सारे सपने देखें /बुने हैं और इश्वर की दया और आपके साथ से उसे पूरा करने की पूरी कोशिश की जाएगी । जब ये साल खत्म होगा और हम पीछे मुड के देखेंगे तो हमें एक सुखद अनुभूति हो , यही प्रयास रहेगा । एक बार फ़िर आप सबको बधाई और शुभकामना ॥

झा जी कहिन को आप सबने बहुत प्यार दिया और दे रहे हैं तो आज इस नए साल से अब झा जी सुनिन भी आपके लिए ले कर आ रहा हूं , उम्मीद है कि उसका स्वाद भी आपको भाएगा ॥
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