ताउम्र यूं,
खुद ही,
अपने को ,
ढोता रहा आदमी।
जब भी दिए,
जख्म औरों को,
खुद ही,
रोता रहा आदमी॥
पैशाचिक दावानल में,
कई नस्लें हुई ख़ाक,
लकिन बेफिक्र,
सोता रहा आदमी॥
जानवर से इंसान,फिर ,
इंसान से हैवान,ना जाने,
क्या से क्या,
होता रहा आदमी॥
ज्यों,ज्यों, बहुत बड़ा, बहुत तेज़,
बहुत आधुनिक बना,
अपना ही आदमीपन,
खोता रह आदमी॥
हाँ आज सचमुच ही मुझे इस भीड़ में कोई आदमी नहीं मिलता.
प्रचार खिडकी
गुरुवार, 28 जनवरी 2010
खुद को ढोता ....आदमी
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
पैशाचिक दावानल में,
जवाब देंहटाएंकई नस्लें हुई ख़ाक,
लकिन बेफिक्र,
सोता रहा आदमी॥
-जबरद्स्त! बहुत गजब!
आदमी बड़ा हो गया है , आदमीयत खो गई है
जवाब देंहटाएंजायज फिक्र है आपकी
बस हम आदमी बने रहें, यही प्रयत्न रहे।
जवाब देंहटाएं"हाँ आज सचमुच ही मुझे इस भीड़ में कोई आदमी नहीं मिलता."
जवाब देंहटाएंदेखो शक्ल से भी अब,
लग 'खोता' रहा आदमी !
sach kaha aaj ki duniya mein aapko sab milega bas sirf ek aadmi hi nhi milega.
जवाब देंहटाएंजानवर से इंसान,फिर ,
जवाब देंहटाएंइंसान से हैवान,ना जाने,
क्या से क्या,
होता रहा आदमी॥
बहुत सच कहा आप ने इस कविता मै, सच मै आज आदमी खॊ गया है कही
SAHI KAHA AAPNE , KHUD KO HI DHO RAHA HAI INSAN
जवाब देंहटाएंबहुत सच कहा आप ने इस कविता मै, सच मै आज आदमी खॊ गया है कही
जवाब देंहटाएंज्यों-ज्यों इंसान बड़ा...बहुत बड़ा होता जाता है...उसका लालच और अधिक तेज़ी से बढ़ता जाता है और सब कुछ पा लेने के इस अंधे लालच में वो कई ऐसे कृत्य भी कर डालता है जो उससे उसके इंसान होने का हक भी छीन लेते हैं ...
जवाब देंहटाएंसारगर्भित रचना
बहुत अच्छी कविता।
जवाब देंहटाएं