सफर दर,
सफर,
रास्ते,ह
कटते गए॥
छोड़ दी,
जबसे,
शिकायत की आदत,
फासले ,
मिटते गए॥
मैंने तो ,
बस,
संजोई थी,
चाँद यादें,
घड़ी भर को,
बंद की पलकें,
सपने,
सजते गए॥
चला था जब ,
तनहा था,
और कभी,
किसी को,
पुकारा भी नहीं,
पर बन गया,
काफिला जब,
मुझ संग,
सभी अकेले,
जुड़ते गए॥
हादसा कुछ,
यूं हुआ,
हमें, लड़खाते देख,
उन्होंने सम्भाला,
हम होश में आए,
सँभलते गए,
मगर वो,
गिरते गए॥
कुछ लोगों ने,
सबसे कहा,
तुम क्यों साथ-साथ,
रहते हो,
जीते हो, मरते हो,
तुम सब ,
अलग हो,
बस फ़िर,
सब आपस में,
लड़ते गए॥
और वे अब भी लड़ रहे हैं........
प्रचार खिडकी
गुरुवार, 28 जनवरी 2010
और वे अब भी लड़ रहे हैं........
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चन्द शब्दॊ मे वो जिन्दगी कह गये
जवाब देंहटाएंअपनी दों बातों से वो हजार यादें कह गये
भैया जी आपकी कविता पढने के उपरान्त ये विचार मन में आ गये
जब इस कविता को लेंगे पढ़
जवाब देंहटाएंशर्म से जमीं में जायेंगे गड़
पेट में उनके होगी गड़ और बढ़
फिर जायेंगे भूल कैसे रहे थे लड़
रूपक अच्छा है।
जवाब देंहटाएंलड़ाई रुकवाता हूँ आकर...
जवाब देंहटाएंक्या बात है अजय भईया , भाव लाजवाब लगे ।
जवाब देंहटाएंचला था जब ,
जवाब देंहटाएंतनहा था,
और कभी,
किसी को,
पुकारा भी नहीं,
पर बन गया,
काफिला जब,
मुझ संग,
सभी अकेले,
जुड़ते गए॥
ऐसे ही दोस्त बनते है जो कहीं ना कहीं अपने ख़यालातों से मिलते जुलते होते हैं...बढ़िया रचना..सुंदर भाव..अजय भाई बहुत धन्यवाद इस प्रस्तुति के लिए
बहुत ही विचारणिया, एक अति सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
लोग अपने दुख से दुखी नहीं बल्कि दूसरे के सुख से दुखी होते हैं ...इसलिए लड़वा-भिड़वा कर अलग करा देते हैं...
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना
ओ, दूर के मुसाफ़िर,
जवाब देंहटाएंहमको भी साथ ले ले रे,
हम रह गए अकेले...
जय हिंद...