प्रचार खिडकी

रविवार, 20 जून 2010

आई वांट टू बी जस्ट लाईक यू डैड ! ...........अजय कुमार झा




मेरे विवाह के समय खींची गई पिताजी की तस्वीर


मुझे ये तो ठीक ठीक याद नहीं कि पिताजी के प्रति मेरा आकर्षण यकायक मेरे मन में आया था कि शुरू से ही था क्योंकि मेरी स्वर्गवासी माताजी बताया करती थीं कि बचपन में भी जब सो कर उठता था तो आमतौर से अलग मैं मां मां न करके पापा पापा करता हुआ उठता था । पिताजी का भी उन दिनों सबसे प्रिय काम होता था मेरे साथ खेलना कूदना । या शायद मैं उनकी देह पर हरी रंग की चमचमाती फ़ौजी वर्दी को देख कर उन जैसा बनने की चाहत पाल बैठा था , ये भी हो सकता है कि उन दिनों जब देखता था कि पिताजी हर क्षेत्र में हर मोर्चे पर अपने आपको बिल्कुल दृढता से रख देते थे , उनके लिए कोई अपना पराया नहीं था । उनके लिए कोई दिन रात की बंदिश भी नहीं थी , उनके लिए कोई भी काम असंभव नहीं हुआ करता था इसलिए कोशिश करना तो उनकी आदत थी ही ।

उनकी एक खास बात ,फ़ौजी दिनचर्या और उनके कार्यक्षेत्र में कभी कभी अनिवार्यता के अनुरूप मदिरा का सेवन , न सिर्फ़ सेवन बल्कि शायद एक आदत भी ......उससे भी कोसों दूर रहे , कभी लगा ही नहीं कि उन्हें कभी इसकी चाहत भी रही हो । या फ़िर वो फ़ुर्ती जो वो रात में अक्सर मोहल्ले में , कैंपस में आई किसी मुसीबत के समय दिखा जाया करते थी । उनकी जीवटता जो उन्होंने बांग्लादेश में लडाई में बुरी तरह घायल होने के बाद दिखाई और शरीर में चंद खून की बूंदें होने के बाद भी मां को ढांढस बंधाते हुए कहा कि ," जिंदगी जिंदादिली का नाम होता है , मुर्दा दिल क्या खाक जिया करते हैं "। नहीं जानता कि उनकी वो कौन सी बात थी या कौन सी आदतें थीं जो मुझे अक्सर ये कहने पर मजबूर करती थीं कि , "डैड, आई जस्ट वांट टू बी लाईक यू "। जब वे होते थी तो बस वे ही होते थे , उनका अनुशासन , दूसरों में उनका डर , उनकी हिम्मत , और सबसे बढकर रिस्क उठा जाने की आदत , सब कुछ एक आभामंडल जैसा था मेरे लिए ।


कभी कभी तो उनका अनुशासन बहुत ही कोफ़्त में डाल देता था , सोचते थे कि बताओ भला आप खुद फ़ौजी हैं तो हमें भी फ़ौजी बनाए दे रहे हैं । उनकी एक आदत से भी हम दोनों भाई उन दिनों परेशान रहते थे कि दीदी ही उनका बेटा थी असल में । बताओ पूरी दुनिया बेटा बेटा करते मर रही थी और वे अपने मित्रों से हमारी दीदी का परिचय करवाते हुए कहते थे , ये है मेरा सबसे बडा बेटा , बांकी के ये दोनों तो एक नंबर के शैतान हैं । और शायद यही वजह रही कि दीदी का अचानक यूं हमें छोड कर चले जाना उन दोनों से बर्दाश्त नहीं हुआ । मां ने पूरे बीस साल तक इस दुख को अपने भीतर झेला और वो भी चल दीं अपनी बेटी के पास ।

पिताजी यहां भी जीवट निकले , अब भी मेरे पास हैं, मेरे साथ , सोचने समझने की शक्ति अब नहीं रही उनमें । उनकी एक सिमटी हुई दुनिया है उनके पास । बीच बीच मे पत्नी और पुत्री को खोने का गम भी जोर मार देता है । मैं भरसक कोशिश करता हूं कि पिताजी को ये एहसास होता रहे कि अभी भी बहुत सारे बचे हुए हैं जिन्हें उनकी जरूरत है , बहुत जरूरत है । उनके साथ की , उनके स्नेह की , उनकी छाया की । अब मेरा बेटा और बेटी जब उन्हें तोतली जबान में दद्दा कहते हैं तो खुशी से उनकी पलकें कांपने लगती हैं । मैं अब भी कोशिश करता हूं कि उनके आदर्शों पर ही चलता जाऊं । जानता हूं कि उनकी बहुत सी बातें मेरे लिए मुमकिन नहीं , खासकर दूसरों के लिए उनके द्वारा किया गया त्याग और बदले में उनके द्वारा की गई उपेक्षा को देखने के बाद तो कतई नहीं । मगर लगता है कि आज जो भी मैं जैसा भी अपने आपको पाता हूं तो जरूर और नि:संदेह वो पिताजी के कारण ही उनके जीवन के कारण ही ।

जीवन चक्र को घूमते कहां देर लगती है । बेटा भी धीरे धीरे उन्हीं चरणों में पहुंच रहा है जहां मैं खुद को कभी पाता था । मैं लिखता पढता रहता हूं तो वो भी साथ बैठ कर कभी चित्रकारी तो कभी कुछ और पर हाथ आजमाता रहता है । आदतें सारी की सारी कुछ इस कदर उतर गई हैं उसमें कि कभी कभी तो अंदेशा होने लगता है कि मेरी छोटी सी जीरोक्स कौपी मेरे सामने ही घूम फ़िर रही है । और जब साथ बैठा अपनी कौपी में सुंदर अक्षर उकेर कर मुझे गर्व से दिखाता है तो उसकी आखें भी मानो कह रही होती हैं , " डैड , आई वांट टू बी जस्ट लाईक यू डैड !"

शुक्रवार, 4 जून 2010

अभी तक क्राईम टाईम्स , दिल्ली में , "ब्लोग हलचल" में निरूपमा हत्याकांड पर लिखी गई कई पोस्टों की चर्चा

आलेख को पढने के लिए चटका कर , जो भी छवि अलग खिडकी में खुले ,
उसे चटका कर आप आराम से पढ सकते हैं ।
इस अंक में , गपशप का कोना ,एक आलसी का चिट्ठा , घुघुती बासूती, चोखेरबाली, और अखिलेस सिंह आदि का उल्लेख

गुरुवार, 3 जून 2010

आपकी मर्ज़ी , चाहे तो पुस्तकालय बनाएं या कूडाघर



मुझे अक्सर टोका गया कि आपने अपने इस ब्लोग का नाम" रद्दी की टोकरी " क्यों रखा या कि इस ब्लोग का नाम बदलिए । अभी थोडे दिनों पहले ज़ील उर्फ़ दिव्या जी ने कहा कि हर ब्लोग्गर को अपने ब्लोग की इज़्ज़त करनी चाहिए इसलिए आपको भी इस ब्लोग का नाम बदल कर कुछ और रखना चाहिए । बात मार्के की थी और कुछ अलग भी सो बहुत देर तक सोचता रहा । सबसे पहले आपको इस ब्लोग के नामकरण की दास्तान भी बता देता हूं । इस ब्लोग को जब शुरू किया गया था तो नाम रखा गया "कबाडखाना"। वजह सिर्फ़ ये कि अलग सा नाम शायद पाठकों को आकर्षित कर सके । मगर कुछ दिनों बाद ही हिंदुस्तान के "ब्लोग वार्ता "में रवीश जी ने परिचय करवाया एक ब्लोग "कबाडखाना "से । अशोक पांडे जी का ये ब्लोग जो न सिर्फ़ बहुत पहले से बना हुआ था बल्कि हर दृष्तिकोण में हिंदी ब्लोग जगत के बेहतरीन ब्लोग्स में से एक था , और अब भी है । ऐसे में उसी ब्लोग के नाम से मैं अपने इस ब्लोग का नाम रखे रहने की धृष्टता नहीं कर सकता था , सो उसी दिन से इस ब्लोग का नाम रख दिया गया" रद्दी की टोकरी "। मैंने कहीं पढा था कि , लेखन में यदि वाकई दम होगा तो चीथडों में भी साहित्य और भाषा नज़र आ जाएगी और यदि लेखन वाकई कचरा होगा तो फ़िर गुलदस्ते में भी सजाओगे तो सुगंध तो कतई न आ पाएगी । इसलिए रचो और उसे फ़ैल जाने दो पाठकों के बीच वे अपने आप तय कर लेंगे कि उसका हश्र कैसा होने वाला है ।


जहां तक रद्दी की बात है तो , पढने के बाद दैनिक अखबार भी रद्दी हो जाता है , और पढने के बाद उपन्यास भी खासकर वो बीस पच्चीस वाले , साल खत्म होने के बाद कोर्स की किताबें भी रद्दी ही समझी जाती हैं । हिंदी के साहित्यकार , हिंदी पढने लिखने वाले , और हम जैसे हिंदी के ब्लोग्गर भी रद्दी ही माने समझे जाते हैं जी , दूसरी जगह का क्या कहें जब घर में ही हमें रद्दी समझ लिया जाता है । हालांकि हमारे जैसे मूढ उस रद्दी में से भी कुछ कुछ ढूंढने में लगे रहते हैं , मुझे तो अपने आलेखों के लिए आंकडों को इकट्ठा करने के लिए जितनी मदद इस अखबारी रद्दी से मिलती है उतनी और कहीं से नहीं मिल पाती है । तो बेशक मैंने अपने इस चिट्ठे का नाम रद्दी की टोकरी रखा हुआ है , मगर जो कुछ इसमें उडेलता हूं ,वो सब मेरे लिए अनमोल ही हैं । आगे तो पाठक ही तय कर लेते हैं कि क्या है ? वैसे भी टोकरी रद्दी की है न जी , माल तो नहीं डाल रहा न रद्दी , जब माल भी रद्दी डलने लगे तब सोचूंगा कि अब क्या करना है इस टोकरी का ।


वैसे इसी बात पर ध्यान आया कि आजकल कुछ चिट्ठाकार अपने चिट्ठे को वाकई इस रूप में खुले छोडे हुए हैं जैसे कि सरकार मेनहोल के ढक्कन खुले छोड देती है । कि आओ और उडेल दो अपना सब कुछ , गंद बला , कच्चा , पक्का , अधकचरा , बास मारता । ये तो तय है कि चाहे एक शब्द लिखने वाला या पूरा का पूरा ग्रंथ उडेलने वाला अपनी कृति को एक जैसा ही अनमोल मानते हैं , और मानना भी चाहिए । यदि अपने लिखे की खुद ही इज्जत न की तो दूसरों से इसकी अपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए , किंतु जाने अनजाने जब कुछ चिट्ठों को नामी बेनामी के नाम पर सिर्फ़ विष वमन के लिए उपयोग करने के लिए छोड दिया जाता है तो वो थोडे ही दिनों में सडांध मारने लगती है । इससे अच्छा लगता है कि आप उसके सामने जाकर खुल्लम खुल्ला जितनी भी भडास हो निकालें । और अब तो ये भी नहीं कहा जा सकता कि भाषा और शब्द मर्यादित हों क्योंकि ये तो सीधे सीधे ही संस्कारों पर निर्भर करता है , जैसे मिलें हों उन्हें वैसे ही आगे की ओर सरकाएं । मगर आप निकालें , वो भी नकाब लगा कर नहीं । और जब उस विषवमन को जानबूझ कर सजा कर रखा जाता है तो कहीं न कहीं तो ये माना ही जा सकता है कि खुद चिट्ठाकार भी कमोबेश यही चाहते थे ।

मुझ से भी शुरूआती दिनों में एक पोस्ट में ये गलती हुई थी , और उसका फ़ायदा कुछ ऐसे ही तत्वों ने उठाया जो इसी ताक में बैठे हुए थे । मगर फ़ौरन ही बात लो भलीभांति , भांप कर मैंने अपनी गलती सुधार ली और भविष्य में फ़िर दोबारा ये मौका नहीं दिया । आगे भी यही प्रयास रहेगा । तो यकीनन ये तो सिर्फ़ एक निजि फ़ैसला है कि आप अपने चिट्ठे को खुद किस तरह उपयोग करते हैं और उससे जरूरी ये कि उसे किस तरह से उपयोग होने करने के लिए छोड देते हैं ।

बुधवार, 2 जून 2010

आज के "डेली हिन्द मिलाप" , (हैदराबाद ),तथा "सच कहूं" सिरसा, में में प्रकाशित मेरा एक आलेख

दैनिक सच कहूं सिरसा में प्रकाशित



आज के दैनिक डेली हिन्द मिलाप , हैदराबाद में प्रकाशित

(आलेख को पढने के लिए उसे चटकाएं, और अलग से खुली खिडकी में,
दिखने वाली छवि को चटका कर आराम से पढा जा सकता है ) , इस आलेख
को आप ब्लोग पोस्ट के रूप में पहले भी पढ चुके हैं ।

मंगलवार, 1 जून 2010

दैनिक महामेधा में , "ब्लोग हलचल ", में कसाब मामले का ज़िक्र करती कई ब्लोग पोस्टों का उल्लेख



आलेख को पढने के लिए उस पर चटका लगाने पर अलग खिडकी में खुलने वाली
छवि को चटका लगा कर आप उसे आराम से पढ सकते हैं ।

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