प्रचार खिडकी

गुरुवार, 31 जनवरी 2008

अब साइमंड्स कटघरे में

अपने भज्जी मियां तो फालतू के आरोपों से बारी हो गए। फालतू के इसलिए क्योंकि ये कौन मान सकता है कि जो भारतीय खुद नस्लभेद का शिकार रहे हों वे खुद किसी पर नस्लभेदी टिप्पणी करेंगे। मगर यहाँ माजरा कुछ ज्यादा बढ़ गया है।

सुनने में आया है कि वानार्जगत ने अन्द्र्यु साइमंड्स को कटघरे में खडा करने का निर्णय लिया है। कल ही उन्होने साइमंड्स को पकड़ लिया और खूब खरी खोटी सुनाई॥

"क्यों बे, तुझे यदि भज्जी ने बन्दर कहा तो वो गाली कैसे हो गयी बे ? तूने अपनी शक्ल देखी है , पता ही नहीं चलता है कि तू कौन सा प्राणी है , नीचे चिद्दी सी दाढी , और सर पर ढेर सारी जता। और फिर तुम इंसान तो एक दुसरे को ना जाने कब से और ना जाने कितनी ही बार गधा , कुत्ता, बन्दर उल्लू, कहते आ रहे हो हमने तो आज तक बुरा नहीं माना। ये क्यों भूल गया कि तुम सब इंसा बन्दर की औलाद हो। ये अलग बात है कि अब तुम बन्दर रहे नहीं और इंसान बन नहीं पाए ।

लेकिन सर , वो नस्लभेदी तिप्नी थी। एंड्र्यू ने सफाई देनी चाही।

अबे चुप, कहे का नस्लभेद और कहे कि टिप्पणी । तुम लोग भी एक मैच जीतने के लिए क्या कया नाटक करते हो यार। अबे इससे अच्छा तो ये होता कि मैच फ़िक्सिंग कर लेते। बड़ा ही सेफ रास्ता है।

बुधवार, 30 जनवरी 2008

अब बने हम सुपर मार्केट , हम किडनी बेचते हैं

जैसे ही मैंने ये खबर देखी कि हमारे यहाँ पर कुछ बडे बिजनेस मैन पैदा हुए हैं जो यहाँ पर बहुत बडे पैमाने पर kidnee का अंतर राष्ट्रीय कारोबार करते हैं। मेरा मन ख़ुशी से बाग़ बाग़ हो गया। अजी चलती रहे दुनिया भर में mandee का दौर , होता रहे अमेरिका और इंग्लैंड का बेदा गद्क और चाहे कितनी ही बार हमारा दलाल स्ट्रीट डूब जाये , मगर मुझे पूरा यकीन हो गया है कि जब तक इस तरह के किडनी के दलाल हमारे यहाँ पर मौजूद हैं हम दुनिया भर के लिए सबसे बडे सुपर मार्केट बने rahenge। ama इससे badh kar भी कोई produkt हो saktaa है kisi देश के पास bechne के लिए। तो bhaiyaa काहे कि चिंता है phir , vyarth की है toubaa क्यों मचा रखी है भी लोगों।

वैसे भी हम तो शुरू से सबसे अनोखे उत्पाद बेचने के लिए मशहूर हैं भैया। देखिए बहुत साल पहले हमारे यहाँ से लोगों को ले जाकर बेचा जाता था videshon में मजदूरी करने के लिए , यानी हम अपने यहाँ के प्राणी बेचते थे। समय बदला और हम भी पढ़ लिख kar इन्तेल्लेजेंट हो गए तो हम कहाँ मानने वाले थे हमें अपना स्तातास बदला और हम अपना टैलेंट बेचने लगे। हमारी कद्रदानी देखिए कि हमें भी और हमारे टैलेंट को भी बिल्कुल ब्रांडेड उत्पाद की तरह खारेदा गया।

अजे, ये तो हुई इंपोर्ट और एक्सपोर्ट की बात । खरीदने बेचने में तो हमारा अपने देश में भी लाजवाब रेकोर्ड है। हम अपनी इमानदारी, खुद्दारी, अपना इमान , अपनी इज्ज़त यहाँ तक कि अब तो हमारे कई महान लोग अपनी बहन बहू और बेटियों तक को बेझिझक बेच रहे हैं। सबसे बडे फख्र की बात तो ये है कि इनके खरीदार भी हमें कहीं तलाशने की जरूरत नहीं होती वो भी हमारे अपने ही लोग हैं। और हाँ इसके लिए ना तो कोई सेंसेक्स है na ही किसी का कोई कोंत्रोल बिल्कुल फ्री मार्केट है भैया।

चलो भाई लोगों , अब अपनी , अपने अंगों की , अपने मान समान, इमान, अपमान, जिन्दगी और maut तक की कीमत लगाओ और मेज़ से बिजनेस करो । क्यों सही कहा ना.

मंगलवार, 29 जनवरी 2008

बर्ड फ़्लू पर मुर्गों की बैठक ( नहीं स्टैंड अप )

जैसे ही समाचारों में ये बात आयी कि भारत के कुछ क्षेत्रों में बर्ड फ़्लू फैलने की खबर है देश भर के मुर्गा मंदी के नेता मुर्गों ने आपात स्टैंड अप बुलाया। दरअसल मुर्गे बैठते नहीं हैं और ऐसी कारगिल वार वाली सिचुअशन पर तो बिल्कुल नहीं।

देखिए एक बार फिर पश्चिमी देशों ने हम देसी मुर्गों पर कोई रासायनिक टाईप का हमला किया है और शोर मचा दिया है कि हमें बर्ड फ़्लू हो गया है। मुर्गा मंत्री ने इतना ही कहा कि प्रश्नों की झाडी लग गयी।

सर , ये बर्ड फ़्लू क्या है, क्या ये भी कोई आई लव यू ईलूयु कि तरह का तो नहीं है, मगर सर आजकल मुर्गियाँ कहाँ रही प्यार करने के लिए वे तो बस अंडो की फक्तारी बन गयी हैं।

सर, पहली बात ये जो कुछ भी है बर्ड से रेलातेद है तो हम क्यों चिंता करें? हम तो मुर्गे है। आप ही बताइये , हमें बिर्ड्स में कौन गिनता है? बच्चों को हमारे फोटो दिखाओ तो पूछेंगे कि पापा इसका अफगानी ज्यादा बढिया बनेगा कि फ्री । मुझे तो लगता है हम अब मुर्गे भी नहीं है सिर्फ चिकेन रह गए हैं।

सर मुझे ये समझ में नहीं आता कि हमें ही बार बार क्यों घसीटा जाता है , अभे कुछ दिन पहले ही सेन साहब ने कुछ हेद्लेस चिकेन कह कर भी हमें ख़बरों में ला दिया था।

मुर्गा मंत्री बौखला गया । अरे चुप रहो यार , तुम सब,. देखो, जहाँ जहाँ तक मुझे पता चला है कि ये कोई बड़ी बीमारी है एड्स की तरह जो पश्चिमी देशों ने ही फैलाई है। जैसे आज तक ये पता नहीं चला कि एड्स बंदरों से इन्सान में कैसे घुस गया वैसे ही ठीक ठीक नहीं पता है कि बर्ड फ्लाई करते करते बर्ड फ़्लू कैसे हो गया। स्थिति चिंताजनक है इसलिए सरकार हमारे लिए पुल्स पोलियो अभियान टाईप की कोई चीज़ शुरू करने के साथ एम्स हॉस्पिटल से दोक्त्रोर्ण की टीम भेजने वाली है ।

नहीं , नहीं सर ये तो गड़बड़ है। सुना है कि पोलियो द्रोप्स पीने से नपुंसकता आ जाती है और सर एम्स के दोक्तोर्स तो आज कल छुरी, कैंची, तोलिया, कच्छा, कंघा और पता नहीं क्या कया मरीजों के पेट में छोड़ रहे हैं।

मुर्गा मंत्री कुदक कर बोला, चुप बे तूने कौन सी मर्दानगी दिखानी है जो पोलियो द्रोप्स नहीं पिएगा अंडे तो मुर्गियाँ अपने आप ही दे रही हैं। और रही दोक्तोरों की बात , तो यदि वे हमारे पेट में कुछ छोडेंगे तो देर सवेर ये उनके ही पेट में पहुंच जाएगा । समझे।

नहीं नहीं सर, कहकर सारी मुर्गा मंडली लड़ने लगी। कई झटक दिए गए और कई हलाल हो गए। अंत में जो बचा वो सिर्फ चिकेन था। हेड लेस चिकेन.

सोमवार, 28 जनवरी 2008

सड़ गया है इलेक्ट्रोनिक मीडिया का थिंक टंक

कल समाचार चैनलों पर एक खबर थी। अमिताभ बच्चन सपरिवार उत्तर प्रदेश के किसी जिले में किसी विद्यालय की नींव रखने पहुंचे थे। पूरे दिन और देर रात तक सभे टी वी चैनलों ने इस खबर को घोंट घोंट कर बिल्कुल लस्सी की तरह बना कर रख दिया। मगर अब ज़रा इसकी प्रस्तुति पर भी गौर फर्मायिए।
" ये जो धुएं का गुब्बार आप देख रहे हैं , ये उस हेलिकोप्टर के उतरने का है जिसमें बच्चन परिवार उतर कर विद्यालय की नींव रखने पहुंचा है। इसके बाद हेलिकोप्टर के उतरने और उससे गुब्बार उठने के बीच अटूट संबंध को विस्तारपूर्वक समझाया गया।

ये क्या है भाई, क्या यही पत्रकारिता है? किसने कहा था कि आप चौबीसों घंटे समाचार देने वाला चैनेल खोलो और वो भी दर्ज़नों चैनेल? आज कहाँ जा रही है ये तेलेविजनपत्रकारिता, यार ये खबरें हैं आपके पास हमें दिखाने को , कभी कोई चुडैल को एक्स्क्लुसिवे बना रहा है तो कोई किसी अश्लील पार्टी को एक्सक्लूसिव बना कर पेश कर रहा है। मैं मानता हों कि वैश्विक जगत की पत्रकारिता के स्तर तो दूर उसके मर्म तक भी यहाँ के मीडिया जगत का पहुंचना लगभग नामुमकिन है , मगर कम से कम इतना स्तरहीन तो ना ही बनो कि कि पता ही ना चले कि ये पत्रकारिता है या कि बाज़ार लगा है जिसमें समाचारों को अलग अलग फ्लेवर और तडके के साथ बेचा जा रहा है। निस्संदेह आज जो हो रहा है वो यही है।

कहाँ है वो थिंक टंक जो लगातार मंथन और अन्वेषण से बताते थे कि अगला विषय , अगला क्षेत्र , ये कि अगला वो कौन सा मुद्दा होगा जिस पर अपनी सारी उर्ज़ा और सारा समय, सारा श्रम लगा कर कुछ ऐसा निकाल कर लाना है जो वाकई एक खबर हो, एक जानकारी हो जिसके बारे में सबको पता होने के बावजूद सबकी तवज्जो उस तरफ ना गयी हो। क्यों आज कोई खबर कोहिमा के जंगल , चम्बल के बीहड़, अंधरा के किसी कसबे से , तमिलनाडु के किसी तट से, बिहार के किसी कोने से , जम्मू की किसी घाटी से और पूरे भारत से ऐसी खबरें ऐसे समाचार लाता है कि जिसे सच्चे मायनों में समाचार कहा जा सके। अफ़सोस कि आज कोई भी ऐसा नहीं है जो इस गलाकाट बाजारीकरण के दौर में खुद को इस प्रवाह में पड़ने से रोक सके.हालांकि अफ़सोस तब और अधिक बढ़ जाता है जब येपता चलता है कि आज भी कई विदेशी प्रसारण जैसे बीबीसी , वी ओ ई , आदि हमारे बारे में हमारे देशी खबरिया चैनलों से ज्यादा घम्भीर और जिम्मेदार पत्रकारिता कर रहे हैं।

आने वाली नयी नस्ल की पत्रकारिता और पत्रकारों को देख कर तो ये चिंता और भी अधिक बढ़ जाती है। कुकुरमुत्तों की तरह टी वी चैनलों वो भी समाचार चैनलों ने तो समाचार को बिल्कुल अचार कि तरह बना कर छोड़ देंगे। भैया अब भी संभल जाओ, क्योंकि मुसीबत तो ये भी है कि आपको खुद ही संभलना पडेगा.कोई दूसरा ये काम नहीं कर सकता।

रविवार, 27 जनवरी 2008

ब्लोग जगत में मेरी औकात

ब्लॉगजगत में मेरी औकात क्या है ?
आप सोचेंगे कि क्यों भाई अभी तो जुम्मा-जुम्मा चार रोज़ हुए हैं ब्लोगिंग में घुसे हुए या कहें कि ब्लॉगजगत में पैदा हुए और अभी से ये बातें । ये बात तो अब तक उन लोगों ने भी नहीं उठाई है जो इस ब्लोग्संसार की जनक मंडली है। अजी शुभ शुभ बोलिए, ऐसे बातें जब बडों के बारे में होती हैं तो हैसियत कहते है, उसे रूतबा कहा जाता है। खैर मैं तो अपनी यानी अपने औकात की बात कर रहा था।

सोचता हूँ कि पिछले तीन महीनों में लगभग दो सौ घंटे इस ब्लॉगजगत पर बिताने के बाद भी मुझे ठीक ठीक पता नहीं होता कि मुझे क्या लिखना- है , कहानी, कविता, लेख क्या। और तो और तिप्प्न्नी भी हिन्दी में नहीं कर पाटा हूँ अब तक, और न ही अपने ब्लोग पर कोइ तस्वीर , चित्र वागैरेह दाल पाता हूँ । ना ही किसी मोहल्ले में मेरा कोई मकान है ना ही अपना कोई कस्बा है , ना ही किसी कम्युनिटी में शामिल हैं ना ही किसी गुट में, ना ही कहीं हमारे ब्लोग की चर्चा है ना ही कहीं ब्लॉगर के रुप में हमारी चर्चा। फिर व्यावसायिक ब्लोग्गिंग और कमाने-धमाने की तो बात ही क्या?

फिर थोडा करवट बदल कर सोचा।

इतना समय बीत जाने के बाद भी हिन्दी ब्लॉगजगत में सिर्फ डेढ़ हजार ब्लोगिए हैं, कडोदों हिन्दी भाषियों के बीच सिर्फ डेढ़ हजार और उनमें से एक मैं। देश विदेश के इतने बडे लेखकों, कवियों विचारकों के बीच घुसा हुआ मैं बेशक सफ़ेद जैकेट पर लगी काली जिप की तरह लगता होऊं , मगर उसके बगैर जैकेट पूरी भी तो नहीं होगी। कौन सोच सकता था कि मेरी बातों पर संयक्त अरब अमीरात में बैठा कोई ब्लॉगर और बिहार या ओर्रिस्सा में बैठा कोई ब्लॉगर अपनी राय जाहिर करेगा।


तो भैया हमारी औकात कम से कम इस ब्लॉगजगत पर इतनी तो है कि हम खुद पर इतरा सकें॥

अजय कुमार झा
9871205767

बुधवार, 23 जनवरी 2008

हम और आप ब्लोग्गिंग क्यों कर रहे हैं.?

हम सब ब्लोग्गिंग क्यों करते हैं?

आप सोचेंगे कि ये क्या बात हुई , करते हैं तो करते हैं । और फिर जरूरी तो नहीं कि ब्लोग्गिंग करने की कुछ वज़ह भी हो। मगर मेरे कहने का मतलब है कि यदि आप और हम अपने जीवन का कुछ समय यहाँ बिता रहे हैं तो उसकी कोई न कोई वज़ह तो सबके पास होगी ही। या यूं कहूँ कि आपने कभी अपने आप से पूछा है कि आप ब्लोग्गिंग क्यों करते हैं ?

पहली बात जो शायद सब कहेंगे वो है , आदत । कहते हैं कि लिखने-पढ़ने की आदत किसी मादक नशे की लत से कम नहीं होती और फिर ब्लॉगजगत जैसी खूबसूरत जगह पर लिखने का मौका और आदत किस कमबख्त को मजबूर नहीं करेगा यहाँ लिखने को। मेरी तो हालत ये है कि ऐसा लगता कि चौबीसों घंटे दिमाग का एक कोना ब्लोग्गिंग ही करता रहता है और यकीन मानिए कई पोस्टें तो मैंने सपने में लिखी और पोस्ट कर दी।

दूसरा कारण शायद ये हो सकता है कि हम चाहते हैं कि जो हम कहना चाहते हैं ,लिखना चाहते हैं , और साथ ही ये भी चाहते हैं कि दूसरे भी उसे पढे और जाने तो आज की तारीख में इसके लिए इस ब्लोग जगत से उपयुक्त जगह कोई और नहीं हो सकती.सच ही तो है वरना आज किसे फुरसत है कि हम जैसे लोगों को पढे ना सिर्फ पढे बल्कि उस पर अपनी प्रतिक्रिया , सुझाव और सलाह भी दे। तो ये कारण भी बिल्कुल वाजिब ही है।

अपनी पहचान बनाने के लिए। ये बात मैं अपने जैसे उन लोगों के लिए कह रह हूँ जिनके मन में एक ललक और एक लगन है लिखने, कुछ रचने की ,एक अनचाही तड़प है ,अपनी कुछ खास और अलग पहचान बनाने की उन्हें लगता है कि शायद यहीं पर और यही करते करते उनकी एक पहचान बन पायेगी। ये बात कुछ हद तक सही भी लगती है कि कम से कम यहाँ मौजूद सभी मित्रों के बीच एक जगह तो बन ही जायेगी एक दिन।

अपना अकेलापन , अपनी तन्हाई , अपने दर्द को बांटने के लिए .हम में से बहुत से लोग जब भी कुछ ऐसा लिखते हैं जिसमे बहुत भावुकता होती है , एक दर्द छुपा होता है , एक बुलावा, एक आकर्षण सा महसूस होता है तो कम से कम मुझे तो यही लगता है कि कहीं ना कहीं वो दोस्त अपने दिल की कुछ बातें हमारे सामने रख रहा है ताकि उसका वो दर्द कुछ हल्का हो सके।

अंत में मुझे तो यही लगता है कि बेशक हमारे यहाँ पर रहने और डटे रहने का कारण बिल्कुल अलग अलग हो हमारा उद्देश्य और हमारा चरित्र जरूर अच्छा है । हम अच्छे लोग तो हैं ही इतना तो तय है।


अगली पोस्ट :- ब्लॉगजगत में मेरी औकात ?

मंगलवार, 22 जनवरी 2008

हर्बल और ईको फ्रिएंद्ली होगा अगला रेल बजट

भारत के नए रेल बजट की तैयारी शुरू हो चुकी है। अपने माननीय रेल मंत्री फिर बहुत सारे नए लल्लू छाप आईडिया लेकर आ रहे हैं। कुल्हड़ की चाय के बाद अब खाने के लिए पत्तल इन्त्रोदुस किये जायेंगे। केले के पत्ते के पत्तल, दुसरे पत्तों के पत्तल मगर सावधान नो कागज़, नो प्लास्टिक पत्तल । अरे चौंक क्यों रहे हैं भी पत्ते पूर्णतया एको फ़्रेंडली और बिल्कुल हर्बल होंगे इसमें आश्चर्य की क्या बात है।

देखिए अब ये आप टूथ पेस्ट से लेकर जूते चप्पल तक और कछे से लेकर कम्बल तक लगा सकते हैं। भी अव्व्वल तो ये पता नहीं है यदि ये है भी कुछ तो इसका प्रमाण क्या है, कौन जाने और कौन साबित कर सकता है। मुझे तो कभी कभी लगता है कि मेरा बेटा भी बहुत एको फ़्रेंडली और हर्बल किस्म का है क्योंकि हमेशा ही बच्चों से ज्यादा कुत्ते के बच्चों के साथ खेलता रहता है । और तो और मति तो पत्नी भी काफी एको फ़्रेंडली है। जब तक मैं चार के सारे काम करता रहता हूँ वे बिल्कुल फ़्रेंडली रहती हैं मगर ज़रा सी भी आनाकानी करूं तो उनकी आवाज़ और डांट चारों तरफ एको करने लगते हैं। खैर छोडिये मेरे एको फ़्रेंडली परिवार की बातें। सूना है कि टिकट भी ताड़ पत्रों पर छापे हुए मिलेंगे। भोजन में सिर्फ कंदमूल और फल मिलेंगे ।

देखिए ये तो सिर्फ एक प्रस्ताव है , आगे आगे देखिए होता है क्या?

सोमवार, 21 जनवरी 2008

कुछ उजड़ा हुआ सा

पेड़ के पत्ते,
से लिपटे,
ओस की बूँद ,
के आरपार,
जो की,
देखने की कोशिश,
इक इन्द्रधनुष,
मिला,
छितरा हुआ सा।


खुद में समा,
जब खुद को ,
टटोला,
अपने को,
तलाशा,
तो पाया,
इक पुलंदा,
बिल्कुल ,
बिखरा हुआ सा॥

बहुत बार ,
सजाया-संवारा,
वो आशियाना,
मगर,
हर बार ,
तुम बिन ,
लगा वो,
घरौंदा,
उजड़ा हुआ सा॥

अजय कुमार झा
फोन 9871205767

रविवार, 20 जनवरी 2008

एक शीर्षकहीन कविता

यूं तो हम,
गर्दिशों की रेत से भी,
इक बुलंद इमारत'
खादी करने का,
माद्दा रखते हैं।

पर क्या करें '
कि मजबूर हैं हम,
लोग उम्मीद तो '
हमसे ,इससे भी '
ज्यादा रखते हैं॥

वो जानते हैं कि ,
मैं तोड़ देता हूँ,
सभी कसमें, और वादे,
फिर भी ,जाने क्यों'
हर बार मुझसे इक,
नया वादा रखते हैं॥

उन्हें शक है ,
मेरी मयकशी का,
इसलिए क्यों ना पीना हो,
पूरा मयखाना भी,
मगर हर बार,
जाम हम ,
अपना आधा रखते हैं..

शनिवार, 19 जनवरी 2008

सोच का फर्क

साहिल को बस में बैठते वक़्त ज़रा भे ये फिक्र नहीं थी कि उसके साथ की सीट पर कौन बैठता है। वैसे भी दिल्ली से चंडीगढ़ तक का सफर इतना लंबा नहीं था। फिर उसे तो खिड़की वाली सीट मिल ही गयी थी। दिल्ली से बाहार निकलते-निकलते सर्दी की धुप गरमाने लगी थी। खाले पडी सारी सेटों पर बची खुची सवार बिठाने के गरज से देरैवर ने रिंग रोड से बाहर निकलते ही हाईवे पर बस रोक दी थी और कंडक्टर गला फाड़ फाड़ कर चंडीगढ़ चंडीगढ़ चिल्ला रहा था। साहिल इन बातों से बेखबर अलसाया और उनींदा सा दो सीटों पर थोडा पसरा हुआ था॥

अचानक ही किसी के साथ बैठने के आहट और स्पर्श से उसकी आँखें खुली । देखा तो एक युवते साथ में बैठ चुकी थे। उसने उचटी सी निगाह डाली । हाथ में काला पर्स और पेप्सी की बोतल , गोरा रंग, तीखे नैन नाख्सः कुल मिलाकर आकर्षक व्यक्तित्व की युवते नहीं युवती तो नहीं हां महिला थी वह। साहिल को न जाने क्यों उसका स्पर्श अछा लगा। नारी देह का वो स्पर्श जो बस के हिच्कोलों से ज्यादा हो जाता था साहिल को कल्पना और रोमांच से भरे दे रहा था । साहिल सोच रहा था कि यदि इस महिला से दोस्ती-वोस्ती हो जाये तो क्या बुरा है उम्र थोडी ज्यादा है तो क्या हुआ॥

सफर चलता रहा और साहिल के कल्पना भी। अंततः चंडीगढ़ पहुँचते-पहुँचते ही काफी औपचारिक बातें हो गए कम से कम उतनी बातें तो जरूर ही जितनी दो सहयात्रियों के बीच हो जाते है। साहिल जन चुका था वो anaaraaee महिला अगले कुछ दिनों तक चंडीगढ़ में ही rukne वाली थे। बस चंडीगढ़ में प्रवेश कर चुकी थे॥

साहिल उतरने का उपक्रम करने लगा था। सुनिए आप अपना कोई फोन नंबर दे दीजीये जब तक यहाँ हैं बातें होती रहेंगी, वैसे भी आपकी बातें मुझे किसी की याद दिलाते हैं॥ वह महिला थोडा ठिथिकी फिर बोली, हाँ ये ठीक रहेगा मैं भी यही कहने वाली थी मगर कुछ सोच कर रूक गयी। तुमने मेरे बेटे की याद ताज़ा कर दे जो तीन साल पहले हमें हमेशा के लिए चूद कर चला गया था।

साहिल का हाथ फोन नंबर लेते हुए कांप रहा था । ये उम्र का फर्क था कि सोच का ?

शुक्रवार, 18 जनवरी 2008

सिर्कोजी बन गए सिरदर्द

हाँ भैया, ये भारत की राजनीती की भी अजीब अजीब मुसीबतें हैं । अब देखिए ना इस साल गणतंत्र दिवस के शुभ अवसर पर फ़्रांस के राष्ट्रपति हमारे मुख्य अतिथि हैं । हैं तो हैं , मगर मुसीबत तो ये है कि उनके साथ उनकी पत्नी नहीं बल्कि उनकी ताजी प्रेमिका आ रही हैं। और यही बात तो सबसे बडे दुविधा की है । हमारे अधिकारी हमारे मंत्री और हमारी सरकार तक परेशान हो गयी है कि यार ये तो कभी सोचा ही नहीं था नहीं तो पत्नी वाली सभी जगह पर एक एक्स्ट्रा ओप्शन की गुंजाईश छोड़ देते । अब सब के सब इस सारकोजी के सिरदर्द यानी इनकी प्रेमिका कार्ला को किसी कोलेरा बीमारी की तरह भागेने के चक्कर में हैं।

मगर मुझे ये समझ नहीं आता कि भाई इसमें बुराई क्या है। एक बात बताइये आज जब पूरा देश पूरे देश की जनता , पूरे देश के लाखों परिवार, पूरा महिला समाज बडे मजे से सारे धारावाहिक ( जिसमें सभी में कोई भी ऐसा पुरुष और महिला नहीं हैं जिसके कम से कम चार पांच चक्कर नहीं हैं ) देख रहे हैं , ना सिर्फ देख रहे हैं बल्कि पसंद कर रहे हैं हज़म कर रहे हैं तो इसका मतलब तो यही हुआ ना कि किसी को कोई ओब्जेक्शुं नहीं है। और फिर हे सरकार और उसके अधिकारियों इस देश की परम्परा रही है अतिथि देवो भव , तो भए देव कभी कभी देवी के बगैर अपने दरबार की किसी अप्सरा के साथ आ गए तो इसमें बुराई क्या है यार।

गुरुवार, 17 जनवरी 2008

एक्सपो hai या एक्सपोज

इन दिनों राजधानी में चल रहे ऑटो एक्सपो की खूब चर्चा हो रही है । क्यों ना हो भाई आख़िर इस बार सालों से प्रतीक्षित टाटा की लाख्ताकिया कर नानो जो बाज़ार में उतर गयी है । ऐसा लग रहा कि अब तो राजधानी से लेकर मेरे गाँव के ढोलू चरवाहे तक के पास ये कार दिखाई देगी । खैर ये तो पता नहीं कब होगा और जब होगा तब होगा मगर इस बार जिस एक बात से मुझे थोडी निराशा हुई वो है मोदेल्स की चर्चा।

जी नहीं आप नहीं समझे , मैं गाड़ियों या कारों के मॉडल की चर्चा की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं उन मॉडल की बात कर रहा हूँ जिन्हें पता नहीं किन कारणों से उन गाड़ियों के आसपास कम से कम कपडों में खडा कर दिया जाता है । उन नयी गाड़ियों के या पुरानी भी गाड़ियों के मोदेल्स के साथ उन युवतियों को खडे करने के पीछे का अजीब सा समीकरण मुझे आज तक नहीं समझ आया। हाँ हाँ पता है आप में से कुछ लोग यही सोचेंगे कि जब आजकल शेविंग करें के साथ युवतियों का चित्र और उनकी छवि रहना अनिवार्य है तो सिर्फ कारों के साथ उनके खडे होने पर इस तरह की बातें क्यों।

भाई साहब दरअसल इसमें भी दो बातें हैं । पहली ये कि जहाँ तक शेविंग करें में युवतियों की मौजूदगी की बात है तो वो तो विज्ञापन की चकमक दुनिया है और फिर टी वी सिनेमा पर कौन सा हमारा जोर चलता है । मगर यदि इस तरह मेला लगा कर खुलम खुल्ला कारों के बहाने मॉडल को और मॉडल के बहाने कारों को देखा और दिखाया जाएगा तो फिर वही होगा। अभी परसों ही तो ऑटो एक्सपो देखने के लिए लाखों की भीड़ पहुंच गयी थी जिसमें मेरे पड़ोस के सुलतान चाचा का बेटा राधे और नाथू काका का लाडला बंटी भी था जिन्होंने कार तो दूर कभी बाईक को भी हाथ नहीं लगाया था।

मैं जानता हूँ कि बहुत से लोगों खासकर महिला जागरण और उठान ,समानता की बड़ी बड़ी बातें करने वाली हमारी नारी जगत की शक्तिशाली महिलाओं को मेरी ये बात शायद नागवार गुजरे मगर मैं क्या करूं मुझे जब तक कोई ये नहीं समझायेगा कि आख़िर खुद को एक उत्पाद कि तरह पेश करने वाली महिलाओं और युवतियों को कोइ क्यों कुछ नहीं कहता तब तक मैं माफी चाहूँगा मगर ये पुरुश्वादी दृष्टिकोण वाली दलील बिल्कुल नहीं मानूँगा।

वैसे चाहे तो आप भी जाकर नैनो के दर्शन कर सकते हैं या नैनो से दर्शन कर सकते हैं.

मंगलवार, 15 जनवरी 2008

अरे हमी को दे दो भारत रत्न भैया

लीजिए अब विवाद तो एक नया फैशन बन कर रह गया है , किताबें हों पिक्चर हो या फिर कोई पुरूस्कार हो और इस फेहरिस्त में अब तो भारत रत्न का नाम भी जुड़ गया है । वैसे तो पुरुस्कारों में , उनके चयन में , चयन करने वालों पर हमेशा कोई ना कोई प्रश् चिन्ह लगता ही रहा है विशेषकर भारत में तो ये एक अवाशय्म्भावी तत्त्व हो गया है मगर भारत रत्न जैसा सर्वोच्च समान भी यदि विवादों में पड़ता है तो ये तो बेहद शर्म की बात है।

जैसे जैसे दिन बीतते जा रहे हैं वैसे वैसे लिस्ट में नए नए नाम जुड़ते जा रहे हैं । सबसे मजे की बात तो ये है कि सब के सब ये तो चाहते हैं कि फलां फलां को भारत रत्न कि उपाधी मिले मगर किसी के पास ये जवाब नहीं है कि आख़िर सिर्फ उन्हीं को ये सम्मान क्यों मिलना चाहिए । खैर इस पर तो राजनीती अभी और गर्म होगी और मुझे तो लगता है कि काफी लें दें भी चलेगा, मागर भारत का एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते मेरा भी ये फ़र्ज़ बँटा है कि इस लिस्ट में कुछ और नाम सुग्गेस्ट करूं ताकि भारत सरकार बिल्कुल सही चयन कर सके। तो मैंने नीचे कुछ नाम सुझाए हैं ,

अनिल कपूर और जैकी श्राफ :- आप कहेंगे ये क्यों भाई , तो उसकी मेरे पास एक ठोस वज़ह है । इन्ही के लिए सबसे पहले पूरे देश ने ये गाना गाया था कि "मेरे दो अनमोल रतन , एक है राम तो एक लखन" तो भाई हमारा ये फ़र्ज़ बनता है कि इन दोनो रतानों में से एक रत्न को भारत रत्न दिलवाया जाये।

मेलु राम : जी आप इन्हें नहीं जानते होंगे शायद , मैं इनके बारे में आपको बताता हूँ ये हमारी गली में भाजी की दुकान चलाते हैं और ये सिर्फ और सिर्फ इनकी महर्बने है कि इतनी मेहेंगाई के जमाने में भी ये हमें हमारे इसी तनख्वाह में हरी हरी सब्जी खिलाते हैं मेर प्रति इनका विशेष प्रेम है तीन तीन महीने तक कभी पैसे का तकादा नहीं करते और चाहे किसी और को दे ना दे मगर मुझे सब्जियों के सात धनिया और हरी मिर्च जरूर देते हैं । कम से कम मेरे नज़र में तो एक भारत रत्न के हक़दार तो ये हैं ही।

अजी आपका ये खाकसार यानी कि मैं खुद: अब जब मुझे ये चांस मिलेगा कि मैं नाम सुझाऊँ तो फिर यदि मैं अपना नाम ना लूं तो ये तो सरासर नाइंसाफी होगे ना । वैसे अपना नाम सुझाने के पीछे भी कारण तो है ही। पहला ये कि में माँ हमेहा से यही कहती रही है कि हीरा है मेरा पूत तो , दूसरा कारण ये कि एक मैं हे एकलौता ऐसा वो शक्ष हूँ जिसके नाम पर किसी को भी कोई आपत्ति नहीं हो सकती अजी मुझे जानता कौन है जो दोस्ती और दुश्मनी का सवाल आयेगा वास मैं बारे बारी से सबको वोट दिया हुआ है।

तो कहिये आप क्या सोचते हैं अपने इस रत्न के बारे मैं।

आपका
अजय कुमार झा
फोन 9871205767

रविवार, 13 जनवरी 2008

आईये ब्लोग जगत को सार्थक बनायें

मैं जानता हूँ कि शायद शीर्षक को पढ़ कर बहुत से लोगों के मन में कुछ इस तरह की बातें आ सकती हैं । ब्लोग जगत को सार्थक बनाने का क्या तात्पर्य , क्या अभी चिट्ठाकारी जो हो रही है या की जा रही है वो सार्थक नहीं है , यदि ऐसा है तो कैसे है , या फिर ये भी कि यदि ब्लोग जगत को भी सार्थकता की कसौटी पर ही कास कर देखना है तो फिर इसकी स्वन्त्रन्ता और इसकी असिमित्ता क्या अर्थ रह जाएगा। मगर यकीन मानिए मेरा इस सब से कोई सरोकार नहीं हैं , मैं सिर्फ कुछ बातों पर कुछ खास लोगों का ध्यान दिलवाना चाहता हूँ । ये एक कटु सत्य है कि आज चिट्ठाकारी की इतनी चर्चा और इतनी लोकप्रियता होने के बावजूद अब भी कुल पंद्रह सौ लोग भी नियमित ऐसे नहीं हैं जो चिट्ठाकार कर रहे हैं या फिर कि हम जिन्हें चिट्ठाकार के रुप पहचानते हों। आज भी चिट्ठाकार की दुनिया बहुत से लिहाजों से सीमित जान पड़ती है । तो मैं कुछ लोगों से ये बातें ,ये गुजारिश तो जरूर करना चाहूँगा:-

बडे और चर्चित ब्लोग्गेर्स से : - हमारे सभी बडे ब्लोग्गेर्स और लेखकों से मेरा यही आग्रह है कि वे अन्य जिस भी माध्यम से जुडे हैं वहाँ ये प्रयास करें कि ब्लोग्गिंग के प्रति लोगों कि रूचि बढे कम से कम हिन्दी भाषा में ब्लोग्गिन करने के लिए तो जरूर ही प्रेरित करने की जरूरत है । जैसे कि मोहल्ला वाले अविनाश भाई रविवार को जनसत्ता के परिशिष्ट में एक विशेष स्तंभ ब्लोग पर लिखते हैं जिसमें चित्थाकारे और चिट्ठाकारों कि चर्चा रहती है , ऐसे ही नवभारत तिमेस के रविवार संस्करण में भी ब्लोग्गेर्स का कोना के नाम से शायद एक स्तंभ रहता है। इतना तय है कि चिट्ठाकारी से जितने ज्यादा लोग जुडेंगे उतनी ही यह समृद्ध होगी । मैं खुद अपने स्तर पर ये काम कर रह हूँ और अपने आगामी आलेख के अलावा मैंने बीबीसी हिन्दी रेडियो सेवा को ब्लोग्गिंग विशेषकर हिन्दी ब्लोग्गिंग पर एक प्रस्तुति पेश करने का आग्रह किया है ।

अग्ग्रेगातोर्स से :- यूं तो ब्लोग अग्ग्रेगातोर्स आज की तिथि में बेहद प्रशंन्शिनीय कार्य कर रहे हैं मगर मेरा उनसे आग्रह है कि वे दो बातों पर थोडा और ध्यान दें पहला ब्लोग्गेर्स को उनसे जुड़ने का और सरल तरीका ताकि कोई भी आसानी से अपने चिट्ठे को उनकी साईट पर दिहा सके । दूसरा प्रोत्साहन का काम । हालांकि बहुत से अग्ग्रेगातोर्स अपनी तरफ से कई तरह की प्रतियोगिताएं आयोजित करते हैं मगर जरूरत है इसे थोडा और ज्यादा विस्तार देने कि । मेरे कहने का मतलब है कि कोई एक ऐसी व्यवस्था जरूर बनाए जाने चाहिए जो नए लोगों के लिखने को प्रोत्साहित करने का काम करे। मेरा मतलब सप्ताह का अच्छा लेख , अच्छा व्यंग्य , अच्छा ब्लोग, अच्छा ब्लोग , नया ब्लॉगर , सबसे ज्यादा टिप्पणी करने वाला । रुचिका टिप्पणी करने वाला आदि जैसी तालिका भी बनाने कि कोशिश करें तो और बेहतर हो सकता है ये सब।

चिट्ठाकार मित्रों से ;- ये ठीक है कि चिट्ठाकार करने का मतलब है कि जो हमारे मन में है वो सब कुछ इस पर उकेर देना चाहे जिस भी रुप में हो जिस भी विधा में हो ,शुद्ध हो या अशुद्ध हो , तार्किक हो या अतार्किक हो , सही मायने में यही तो चिट्ठाकारी है। ठीक है मगर मैं उन लोगों को बता दूं कि भविष्य में ऐसा नहीं रहने वाला है बहुत जल्दी चिट्ठाकार और चिट्ठाकारी एक शाशाक्त और प्रबाव्कारी भूमिका में नज़र आएंगे तो ये तो उन्हें समझना ही होगा कि यदि वे भी इस जिम्मेदार समूह के सदस्य हैं तो उनकी भी कुछ ना कुछ तो जिम्मेदारी तो बंटी ही है । इसलिए मेरे कहने का मतलब ये है कि अपनी लेखनी को जहाँ तक हो सके धारदार बनाने का प्रयास जारी रखें।

फिलहाल इतना ही ,

आपका अपना
अजय कुमार झा
फोन 9871205767

शुक्रवार, 11 जनवरी 2008

हर कोई सब कुछ नहीं कर सकता

मेरी पत्नी उस दिन अचानक गुनगुनाने लगीं, दरअसल वो जब भी कोई काम कर रही होती हैं और पूरी तसल्ली से कर रही होती हैं तो स्वाभाविक रुप से कुछ ना कुछ गुनगुनाने लगती हैं। और खुदा का लाख लाख शुक्र है कि उनका गला भी काफी अच्छा है । वैसे सुरों कि कोई समझ नहीं है मुझे मार इतना तो पता चल ही जाता है कि वे बेसुरा और नीरस नहीं गा रही हैं। उन्होने मुझे बताया था कि किस प्रकार उनके स्कूल के दिनों में उनके गायन कि रूचि को देखते हुए और उनकी आवाज़ को देखते हुए उन्हें उनकी टीचर ने संगीत कोअपना एक विषय बनाने को कहा था , और किस प्रकार बाद में कुछ कारणों से वो इसे जारी ना रख पायीं। अब जबकि पिछले कुछ सालों से लगातार टी वी पर संगीत, गायाँ आदि कि टैलेंट हंत प्रतियोगिताओं का आयोजन हो रहा है तो ऐसे में उन्हें इस बात का अफ़सोस ज्यादा होता है। यदाकदा वे इनमें अपनी दावेदारी पेश करने के लिए जोर आज्माएश भी करती रहती हैं। एक बार तो उनकी जिद पर मैं उन्हें संगीत की शिक्षा दिलवाने को भी तैयार हो गया, मगर थोडे ही दिनों में उन्हें वास्तविकता का पता चल गया। फिर मैंने उन्हें समझाया कि हर इंसान में बहुत सारी खूबियाँ होती हैं और ये इश्वर की देन होती है।


मेरा मानना ये है कि हर इंसान एक साथ सब कुछ नहीं कर सकता। हाँ , हो सकता है कि ऐसा सब के साथ ना हो और कुछ लोगों के लिए वो सब कुछ कर पाना संभव हो जो वे चाहते हों या फिर कि जो वे कर सकते हों। मगर आम तौर पर तो ऐसा ही होता है कि इंसान बहुत कुछ वैसा नहीं कर पाटा जैसा करना चाहता है तो मुझे तो लगता है कि आदमी को चाहिए कि बिना इसकी परवाह किये उसे वो करना चाहिए जो उसके बस में हो और उसमें अपना सब कुछ झोंक देना चाहिए परिणाम निश्चित ही सकारात्मक निकलेगा। और फिर निराश होने से पहले उनके बारे में सोचना चाहिए जो शायद जिन्दगी में बहुत कुछ करने कि चाहत और काबिलियत रखने के बावजूद कुछ भी नहीं कर पाते। मेरे कहने का मतलब ये है कि जिन्हें इस बात का अफ़सोस होता है कि वे महंगे जूते नहीं खरीद पाए नहीं पहन पाए उन्हें उनके बारे में सोचना चाहिए जिनके पास जूते पह्नने के लिए पाँव ही नहीं होते ।

शायद ये नज़रिया आदमी को ज्यादा सुकून दे ।

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रविवार, 6 जनवरी 2008

क्या पुरानी पोस्टों ko दोबारा पढ़ कर देखा है कभी ?

ये बात मैं उन लोगों से कह रहा हूँ जो काफी समय से इस चिट्ठाकारी में मशगूल हैं और अक्सर नयी नयी बातें और विचार लिख कर उन्हें ब्लोग जगत पर डालते रहते हैं। यदि कभी कोई पुरानी पोस्ट देखता भी है तो जहाँ तक मेरा ख्याल है कि सिर्फ ये देखने के लिए कि कोई नयी तिप्प्न्नी तो नहीं आ गयी। मगर मेरा कहना कुछ और है यहाँ , आपको याद है वो जाना जब हम चिट्ठियां लिखा करते थे हमें चिट्ठियाँ आया करती थी। या फिर वो ज़माना जब आप या हम नियमित रुप से डायरी लिखा करते थे , बहुत से लोग तो शायद अब भी लिख रहे होंगे।


कभी अचानक कुछ ढूँढ़ते धान्दते अचानक कोई पुराने डायरी कोई पुरानी चिट्ठी पढ़ने को मिल जाये तो कैसा सुखद एहसास होता है । ऐसा लगता है जैसे कोई ठंडी हवा , चुपके से आकर मन को उन्ही दिनों कि यादों में ले कर चली गयी है । वे दिन वे सुख या कि दुःख , वे दोस्त , वो प्यार, वो फाकाकाशी, या कि वो दोस्तों कि मनमौजी महफिल सब कुछ अचानक ही आंखों के सामने चलचित्र कि तरह आ जाता है । है ना ?

चलिए छोडिये ये सब आप में से कितने लोगों ने कभी पलट कर अपनी पहली पोस्ट को देखा है या फिर कि कभी उन पोस्टों पर दोबारा नज़र डाली है जो बहुत पहले लिख कर छोड़ दिया। यदि भूले भटके कभी ऐसा हो जाता है तो मेरे क्या से यही सारे बातें होंगी हो आपके मन में आ सकती हैं :-

--- यार, ये थी मेरी पहली पोस्ट । कमाल है इतना थोडा सा लिखा था वो भी ऐसा बच्चों जैसा , इतना बचकाना, यार इसको यदि ऐसे लिखता तो ये पोस्ट और बढिया बन सकती थी। या फिर ये कि , यार, इतना बुरा तो नहीं लिखा था जब कि ये मेरी पहली पोस्ट थी भाई, और फिर लोगों कि टिप्पणियाँ भी तो आये थी।

---- जो पोस्टें या वे पोस्टें जिन पर आपको प्रशंशा मिली हो या फिर कि खूब सारी टिप्पणियाँ मिली हों वे तो हमेशा ही सबसे पसंदीदा पोस्टों में से एक रहती है । कई बार तो लगता है कि कमाल है यार कितना अच्छा लिख गया था और इतना पसंद आया था लोगों को । कम्बक्त बहुत दिनों से कुछ खास लिख ही नहीं पा रहा हूँ।

---- कभी कभी कोई पुराने पोस्ट , उसका विषय , या फिर कुछ और आपको कोई नया विचार , कुछ नया करने को प्रेरित कर सकते हैं आप लगेगा कि यार इसपर तो लिखना रह हे गया है , या फिर कि अभी तो इस पर और भी बहुत कुछ और लिखा जा सकता है ।

और आप बडे प्यार से थोडी देर तक उसे निहार सकते हैं जैसे कोई माँ अपने बच्चे को निहारती है । कम से कम ये काम उस दिन तो हो ही सकता है जिस दिन आप का मूड लिखने को ना कर रहा हो ।

कहिये आप क्या सोचते हैं ?

शनिवार, 5 जनवरी 2008

ये ब्लोगिए चाहते क्या हैं ............

पिछले कुछ दिनों तक ब्लोग जगत पर समय बिताने के बाद जो महसूस किया वही लिखने की कोशिश कर रहा हूँ। आप सबको कैसा लगेगा मुझे नहीं पता। और हाँ यदि इससे किसी को भी कोई कष्ट पहुंचता है तो उसके लिए मुझे अग्रिम क्षमा करें क्योंकि मेरा मकसद सिर्फ अपने अनुभवों को आपसे बाटना है । आप उससे कितने सहमत हैं या बिल्कुल असहमत ये तो आपकी मर्जी। मेरे ख्याल से तो नीचे लिखी यही वो बातें हैं जो कि कोई भी ब्लॉगर चाहता है :-


ब्लोग पर ढेर सारी बातें : दरअसल इतना समय बीत जाने के बाद भी ब्लोग्गिंग आज भी कम से कम भारत में तो कुछ नया और अजूबा ही है। इसलिए जो भी इससे जुडे हैं या वे जो जुड़ना चाहते हैं ये वे भी जो ब्लोग में रूचि रखते हैं वे सभी चाहते हैं कि ब्लोग्गिंग की बातें होती रहे। अब देखिए ना जब भी मैंने ब्लोग या उससे संबंधित किसी विषय पर कुछ भी लिखा है उसको पढ़ने की इच्छा सबने दिखाई है। हमारे बडे चिट्ठाकार तो इसपर भी नज़र रखे हुए रहते हैं कि ब्लोग जगत के बारे में कहाँ क्या लिखा पढा जा रहा है। यानी कि ब्लोग की बातें ब्लोग पर बातें सभी को पसंद आती हैं।


टिप्पणियाँ : अजी इसकी चाहत किसे नहीं होती । ये तो ऐसा तोनिक है कि यदि आमिर खान और बिपाशा बासु के ब्लोग को भी नहीं मिलता तो ये बेचारे कब का लिखना छोड़ चुके होते। हर ब्लोगिया चाहता है कि वो चाहे कुछ भी लिखे उसपर टिप्पणियाँ तो आनी ही चाहिए। खासकर नए और हमारे जैसे छोटे छोटे नौसिखिये ब्लॉगर तो इसी आस में अपने पुराने पोस्टों को भी कई कई बार खोल खोल कर देखते हैं। और फिर एक ये बात भी है कि यदि मेरे जैसे ब्लोगिए कि किसी पोस्ट पर अविनाश जी, आलोक जी, मीनाक्षी जी, शास्त्री जी, मिश्रा जी जैसे बडे लोग कभी टिप्पणी कर दें तो ख़ुशी के मारे मिर्गी के दौरे तक पद सकते हैं । पता नहीं उन्हें इस बात का अंदाजा है या नहीं। तो ये तय रहा कि दुसरी सबसे पसंदीदा बात जो हर ब्लोगिए को अच्छी लगती है वो है टिप्पणियाँ।

प्रशंशा :- जी हाँ प्रशंशा, मगर ये तो ब्लोगिए क्या हर इंसान बल्कि जानवर को भी पसंद आती है। मगर मेरे कहने का मतलब ये है कि आलोचना कि तुलना में प्रशंशा सबको ज्यादा भाती है । और कई लोग तो इतने जलेभुने बैठे होते हैं कि वो बेचारे कोम्प्लेक्स के मारे कभी किसी की प्रशंशा ही नहीं कर पाते हां आलोचना में उन्हें जन्मजात महारत हासिल होती है। अब मेरी एक पोस्ट पर एक मित्र ने लिखा ," वह क्या बकवास लिखा आपने मगर मैं पढ़ कर टिप्पणी कर रहा हूँ।" पढ़ने के बाद मेरे मन में जो बात आयी " वाह सरकार क्या भीगा भीगा कर मरा है , मज़ा आ गया। " मगर खबरदार आप सबकी आलोचना नहीं कर सकते , लेकिन यकीनन प्रशंशा कभी भी किसी की भी कर सकते हैं।

पैसा कमाना : - क्या कहा पैसा कमाना । तो क्या ब्लोग्गिंग से पैसा भी बनाया जा सकता है । जी हाँ , बिल्कुल यही प्रतिक्रिया थी मेरी जब मुझे ये पता चला कि ब्लोग्गिंग को एड जगत के साथ जोड़ कर उससे पैसा कमाया जा सकता है , बल्कि कई महारथी तो इसमें घुस कर इसे व्यावसायिक ब्लोग्गिंग का रुप दे चुके हैं। मगर अफ़सोस ना तो ये सभी को पता है ना ही ये सभी से संभव है। मेरे एक मित्र ने बताया कि इसके लिए आपको अंगरेजी में लिकना पडेगा। मैंने वहीं पर आत्मसमर्पण कर दिया । क्या पैसों के लिए अंग्रेजी में लिखना शूरोऊ कर दूं और फिर मेरी अंग्रेजी तो भैया अंग्रेजों को बड़ी मुश्किल से ही समझ आयेगी। खैर, कहने का मत्लन ये कि ब्लोग लिख कर पैसा कमाना भी हर ब्लोगिए को जरूर पसंद आता है।

अग्ग्रेगातोर्स के मुख्य पृष्ट पर हमेशा अपनी एक पोस्ट दिखती रहे। मुझे हमेह्सा ये लगता है कि जब भी कोई भी चिटठा संकलक का mukha पृष्ट kholoon हमेशा कम से कम एक पोस्ट तो मेरी dikhnee ही चाहिए भाई। aakhirkaar tabhee तो सब को पता chalegaa कि मैं भी ब्लोग्गिंग kartaa हूँ।


बस यही सब वे बातें हैं जो मुझे लगता है कि हरेक ब्लॉगर चाहे वो बड़ा हो या छोटा जरूर पसंद करता है । इस नए वर्ष में अपनी तो यही चाहत है कि मोहल्ला उर कस्बा बसा रहे , लिंकित मन पर मेरा प्रतिबिम्ब बँटा रहे, कहानिया बुनी जाती रहे, शास्त्री जी के नुस्खे मिलते रहे, तरकश के बानो से नुक्ताचीनी होते रहने के बावजूद विनयपत्रिका निरंतर चपटी रहे, और हँसते हुए कोई भी ब्लॉगर ब्लोग जगत के इस आलोक से नौ दो ग्यारह ना हो।

जय हो ब्लोग जगत की।
बस आपका

अजय कुमार झा
फोन ९८७१२०५७६७।

अगली पोस्ट का विषय :- कभी अपनी पुरानी पोस्टों को पढ़ कर देखा है क्या ?
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