प्रचार खिडकी

सोमवार, 25 जनवरी 2010

पिछली रात, शहर की, हर आँख, रोई है

इतने निष्ठुर,
इतने निर्मम,
ये बच्चे,
अपने से नहीं लगते,
फ़िर किसने ,
ये नस्लें ,
बोई हैं॥

किस किस के ,
दर्द का,
करें हिसाब,
लगता है,
पिछली रात,
शहर की,
हर आँख,
रोई है॥

सपनो का,
पता नहीं,
मगर नींद तो,
उन्हें भी,
आती है,
जो ओढ़ते हैं,
चीथरे, या ,
जिनके जिस्म पर
रेशम की,
लोई है॥

क्या क्या,
तलाशूं , इस,
शहर में अपना,
मेरी मासूमियत,
मेरी फुरसत,
मेरी आदतें,
सपने तो सपने,
मेरी नींद भी,
इसी शहर में,
खोई है॥

ये तो ,
अपना अपना,
मुकद्दर है, यारों,
उन्होंने , सम्भाला है,
हर खंजर अपना ,
हमने उनकी,
दी हुई,
हर चोट,
संजोई है..

9 टिप्‍पणियां:

  1. अजय भईया आपकी इस रचना में यतार्थ भाव साफ-साफ दिखा, आपके भाव ने सच मे दिल को छु लिया ।

    जवाब देंहटाएं
  2. सामाजिक यथार्थ आप की कविता में स्वाभाविक रूप से आता है।

    जवाब देंहटाएं
  3. खूबसूरती से उकेरी गई ...एक सशक्त रचना....

    जवाब देंहटाएं
  4. बड्डे भाई जी आपकी कलम हर दिन जवाँ होती जा रही है... डर है इसके खूँ का उबाल जलजला ना ला दे... :)

    http://swarnimpal.blogspot.com/2010/01/blog-post_25.html
    इक नज़र देखले... दुनिया के फ़साने पे ना जा...
    गणतंत्र दिवस की शुभकामनायें....
    जय हिंद... जय बुंदेलखंड...

    जवाब देंहटाएं
  5. sसमाज के चेहरे का वास्तविक रूप दिखाया है सि कविता मे धन्यवाद और शुभकामनायें

    जवाब देंहटाएं
  6. इस शिल्प में यहाभिव्यक्ति अच्छी लगी ।

    जवाब देंहटाएं
  7. आपके भाव ने सच मे दिल को छु लिया ।

    जवाब देंहटाएं
  8. इस रचना को पढ़ने के बाद मुँह से बस एक ही शब्द निकला..."वाह"....

    जवाब देंहटाएं

टोकरी में जो भी होता है...उसे उडेलता रहता हूँ..मगर उसे यहाँ उडेलने के बाद उम्मीद रहती है कि....आपकी अनमोल टिप्पणियों से उसे भर ही लूँगा...मेरी उम्मीद ठीक है न.....

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