प्रचार खिडकी

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009

एक समाज की दो दिवाली


पिछले कुछ वर्षों से जब से दिल्ली में रह रहा हूं, यहां के सभी पर्व त्योहारों को बारीकी से देखने समझने की कोशिश करता हूं। बारीकी से शायद इसलिये भी क्योंकि अनायास ही उसकी तुलना ग्रामीण क्षेत्रों में उन पर्वों को मनाये जाने के तरीके से करने लगता हूं। ऐसा तो बिल्कुल भी नहीं कि ये अंतर इतना बडा है कि खबर बन जाये कि अमुक जगह पर दिवाली में लोगों ने एक दूसरे को गुलाल लगाया। मगर यकीनी तौर पर अपने अनुभवों से इतना तो जरूर कह सकता हूं कि ..चाहे किसी भी कारणों से...आर्थिक, सामाजिक या और किसी....मगर दोनों परिवेशों में पर्व त्योहार अपना स्वरूप बदल लेते हैं। हो सकता है ऐसा सिर्फ़ मुझे लगा हो , किंतु लगा तो है ही।


पहले बात करते हैं ग्रामीण क्षेत्रों में मनाई जाने वाली दिवाली की । मुझे याद है कि दिवाली की तैयारी वहां शुरु होती थी ..सफ़ाई और स्वच्छता वाले हमारे अभियान से । अभियान कोई राजनीतिक या सामाजिक नहीं था जी ...अपना पर्सनल सा था...तू मेरा हाथ बंटा मैं तेरा.....इस टाईप का। और हम कुछ युवक साथी....घर , बाहर, दालान, खलिहान, यहां तक की छोटी छोटी गलियों तक को साफ़ कर डालते थे। दीपावली की सुबह तो सडकों पर झाडू तक लगा कर उन्हें यथा संभव साफ़ कर दिया जाता था । इस काम में जो मजा और सुख मिला ..वो आज तक फ़िर कभी नहीं मिल पाया। अभी कुछ दिनों पहले जब गांव से समाचार जाना तो दुख हुआ ये जानकर कि अब तो सब बाहर ही आ गये हैं सो उतना तो नहीं हो पाता। महिलाएं गाय के गोबर से लीप कर आंगन को पवित्र कर दिया करती थीं। फ़िर आती थी बारी बाजार हाट की । गांव का आर्थिक परिवेश बेशक बहुत सी अघोषित सीमांए बना देता है, मगर शायद इस लिहाज से ये ठीक ही रहता है कि कम से कम इसी वजह से वहां का समाज शहरी दिखावट और औपचारिकता से बच जाता है। मिट्टी के दिये,खिलौने, लक्ष्मी गनेश की मूर्ति..और चीनी के बने खिलौने, जो प्रसाद में लगते थे। सबसे ज्यादा मारा मारी होती थी मिट्टी के तेल की आखिरकार हमारी सारी ढिबरियां उन्हीं तेलों से तो जलनी होती थीं। और वो डिपो वाला डीलर इसी समय अपने सारे दांव खेलता था ।
उस दिन मां सबसे पहले पूजा की तैयारी करती थी, फ़िर पूजा और सबके साथ की गई वो आरती कहां मिल सकता है अब ऐसा। इसके बाद भोजन..मां अपने हाथों से जाने क्या क्या बना देती थी ..हम खाते खाते थक जाते थे, मगर पकवान खत्म नहीं होते थे। फ़िर होती थी पठाकों की बारी, मगर बहुत ही कम इतने नहीं कि कान फ़ट जाये और चारों तरफ़ धुंआ ही धुंआ दिखे।


अब पिछले कुछ सालों से जो दिवाली मना रहा हूं वो भी तो देख ही लिजीये। तैयारी शुरु होती है ..इस बात से कि इस बार बोनस, फ़ेस्टिवल एडवांस, इन्क्रीमेंट और इन सब जैसे अन्य स्रोतों से कुल मिला कर कितना आ जायेगा...उसमें सब हो पाएगा कि नहीं। इसके बाद शुरू होती है खरीददारी...खरीददारी.....और बहुत सारी खरीददारी। अजी पहले कपडों की, फ़िर घर में रखे जाने वाले सजावट के सामानों की, फ़िर जो उपहार सबको बांटने हैं उनकी, फ़िर पटाखों की, फ़िर मिठाईयों की.....और पता नहीं क्या क्या। घर सजता है तो सब बनावटी सामानों से, बनावटी मिठाईयो ,और अब तो सुना है कि नकली भी , के साथ बनावटी गिफ़्ट लिये...और एक सबसे जबरदस्त बनावटी मुस्कुराहट के साथ ..लोग आपके घर आयेंगे या नहीं तो आप उनके घर जायेंगे। यदि आपका रिश्ता सोमरस नहीं है...तब तो आपका चयन सिर्फ़ इस बात के लिये हो सकता है कि आप अपने बच्चों के साथ पडोसी के बच्चों को बिल्कुल सुरक्षित दिवाली मनवाएंगे। और सच कहूं तो मुझे दिवाली , कम से कम यहां की दिवाली के लिये सबसे ठीक यही ड्यूटी लगती है।घर के खाने की कौन कहे..वो तो दो दिन पहले से ही बंद हो जाता है..सिर्फ़ बजारों में घूमिये और ठूंसे जाईये जो मन करे न करे।

मगर इस बार मैंने तय कर लिया था कि सब कुछ अपने मन मुताबिक करूंगा, घर बाहर की सफ़ाई, खुद के हाथों से बनाये गये से सजावट,,अपने हाथो से रंगोली,,,और भी बहुत कुछ ..तैयारी में लगा हूं....आप भी लगे ही होंगे...बस उत्सुकता ये जानने की हो रही है कि कौन सी वाली मना रहे हैं.....आखिर एक दिवाली को दोनों समाज कितने अलग अलग रूप में मनाते हैं न...
आप सबको दिवाली की बहुत बहुत शुभकामनायें।

10 टिप्‍पणियां:

  1. झा साहब, गाँवों के मुकाबले या यूँ कहूँ कि अन्य शहरो के मुकाबले दिल्ली की दीवाली प्रमुखतया पैसे की दिवाली और दिखावे की दीवाली अधिक है ! इसके आप दोनों रूपों, अच्छे और बुरे के दर्शन यहाँ कर सकते है, क्योंकि यहाँ का समाज भिन्न-भिन्न प्रदेशो से आया एक मिक्स समाज है !
    Happy diwali to you !

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  2. इस रोचक जानकारी के लिए आभार।
    दीपपर्व की अशेष शुभकामनाएँ।
    -------------------------
    आइए हम पर्यावरण और ब्लॉगिंग को भी सुरक्षित बनाएं।

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  3. झा जी, बहुत सही तुलना किया है आपने! मैं तो रायपुर शहर में ही पैदा हुआ हूँ किन्तु अनुभव करता हूँ कि बचपन में जो दीपावली मनाया करते थे वह कमोबेस आपके गाँव जैसी ही होती थी किन्तु अब तो दीपावली मनाना सिर्फ औपचारिकता बन कर रह गई है, सिर्फ इसीलिए मनाते हैं कि दिवाली मनाना है।

    दीपोत्सव का यह पावन पर्व आपके जीवन में भी धन-धान्य-सुख-समृद्धि ले कर आए!

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  4. इस बार दीवाली हम भी आप जैसी ही मना रहे हैं।

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  5. गांव की दीवाली दीवाली है .. शहर की दीवाली में दीवाला न निकल जाए .. इसका ध्‍यान रखना होता है .. आप भी ध्‍यान रखें .. दीपावली की ढेर सारी शुभकामनाएं !!

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  6. लोगो की सोच और आधुनिकता का होड़ दीवाली पर भी हावी है..वो मेल जोल और एकजुट कहाँ सब के अपने अपने ढंग..बढ़िया प्रसंग...दीवाली की शुभकामनाएँ!!!

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  7. दीवाली क्या, आजकल हर त्यौहार खरीदारी के पैमाने पर ही नापा जाता है।

    इस बार हमारी कोशिश है कि बाज़ार के तैयारशुदा सामग्रियों का इस्तेमाल कम करते हुए दीवाली का आनंद लिया जाए।

    देखते हैं कहाँ तक सफलता मिलती है।

    बी एस पाबला

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  8. झा साहब बहुत सुंदर लिखा आप ने, बहुत फ़र्क है गांव ओर शहर मै...
    धन्यवाद
    आप को ओर आप के परिवार को दिपावली की शुभकामनाये

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  9. आप को दीपावली की शुभकामनाएं.

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टोकरी में जो भी होता है...उसे उडेलता रहता हूँ..मगर उसे यहाँ उडेलने के बाद उम्मीद रहती है कि....आपकी अनमोल टिप्पणियों से उसे भर ही लूँगा...मेरी उम्मीद ठीक है न.....

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