प्रचार खिडकी

शनिवार, 3 अक्तूबर 2015

जीभ और दांत





एक संत थे | उनके कई शिष्य थे | जब उन्हें महसूस हुआ कि उनका अंतिम समय आ गया है तो उन्होंने अपने सभी शिष्यों को बुलाया |

जब सभी शिष्य आ गए तो उन्होंने कहा ," ज़रा मेरे मुंह के अन्दर ध्यान से देखकर बताओ कि अब कितने दांत शेष बचे रहे गए हैं |"

बारी बारी से सभी शिष्यों ने संत का मुंह देखा और एक साथ बोले," गुरूजी आपके सभी  दांत  टूट गए हैं | एक भी बचा हुआ नहीं है | "

संत ने कहा ,"ज़रा ध्यान से देखो कि जीभ भी है या नहीं "

यह सुनकर शिष्यों को हंसी आ गयी | वे सोचने लगे कि आज गुरू जी मजाक क्यों कर रहे हैं |

एक शिष्य बोला ,"गुरु जी जीभ तो जन्म से मृत्यु तक साथ रहती है वह भला कहाँ जायेगी  "

संत हंस कर बोले ,"यह तो अजीब बात है कि  जीभ  जन्म से मृत्यु तक साथ रहती है और दांत बाद में आते हैं मगर पहले ही साथ छोड़ देते हैं | जबकि बाद में आने वालों को बाद में जाना चाहिए | क्या तुम लोगों में से कोइ बता सकता है कि ऐसा क्यों होता है कि दांत  बाद में आते हैं और  पहले चले जाते हैं "

एक शीश बोला," गुरु जी यह प्रकृति का नियम है कि दांत टूट जाते हैं और जीभ नहीं टूटती "

संत बोले यही बात समझाने के लिए मैंने तुम लोगों को यहाँ बुलाया  है | यह प्रकृति का नियम नहीं है | जीभ इसलिए नहीं टूटती क्योंकि वह लचीली है वह नरम है उसमे सहन करने की शक्ति होती है उसमे कठोरता बिलकुल नहीं होती |जबकि दांत बहुत कठोर  होते हैं उन्हें अपनी कठोरता पर अभिमान होता है | लेकिन उनकी कठोरता ही उनकी समाप्ति का कारण बनती  है | जीभ और दाँतों की कोइ तुलना नहीं हो सकती लेकिन यदि तुम्हे समाज के कठोर नियमो का सामना करना है तो तुम लोग जीभ बनो दांत नहीं | अपने को हमेशा  लचीला बनाए रखो समाज में  नम्रता  से व्यवहार करो |यदि ऐसा नहीं करोगे तो दाँतों की तरह तुम भी जल्दी टूट जाओगे और समाज तुम्हें तिरस्कृत कर देगा | "

7 टिप्‍पणियां:

  1. अरे वाह...कितनी अच्छी सीख..
    भैया आज ही सोच रहे थे, कि पहले बचपन में पुस्तक मेले में ऐसी कहानियों वाली किताबें कितनी पसंद आया करती थीं जिनमे ऐसे सीख वाले लागुकथाएं होती थीं... :)

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    1. सच कहा तुमने अभिषेक उन दिनों की बात और उन दिनों की यादें अनमोल हैं ...

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  2. बुलेटिन टीम का शुक्रिया और आभार

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  3. जानकारी देने के लिए शुक्रिया मित्र

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  4. या कविता मैंने कक्षा 5 में पड़ी थी और अब मैं 40 का हूं । कविता इस प्रकार है ।
    " जीभां और दातं"
    एक समय में, थे एक संत विद्वान ।
    लोग ह्रदय से करते थे उनका आदर सम्मान ।
    अंत समय जब उनका आया ।
    निर्बल हुई थकी जब काया ।
    बड़े प्रेम से पास उन्होंने अपने शिष्यों को बुलाया ।
    बोले मेरे जीभां तो है ,देखो तो मुंह खोल ।
    शिष्य देखकर बोले ।
    हे प्रभु जीव रही है डोल ।
    इस पर संत मन मुस्कुराते,
    शिष्यों को थोड़ा ऊलझाते ,
    बोले दांत समूचे मेरे, क्या तुम्हें नजर नहीं आते ।
    (आखरी की कुछ पंक्तियां मैं भूल रहा हूं)
    जीवन दौड़ में सदा दांत को जीभा देती मांत ।

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टोकरी में जो भी होता है...उसे उडेलता रहता हूँ..मगर उसे यहाँ उडेलने के बाद उम्मीद रहती है कि....आपकी अनमोल टिप्पणियों से उसे भर ही लूँगा...मेरी उम्मीद ठीक है न.....

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