प्रचार खिडकी

गुरुवार, 8 मई 2008

क्या मैं पत्थर हो गया हूँ ?

सड़क पर,
हादसे देखता हूँ,
और पड़ोस में,
हैवानियत।

कूड़े में अपनी,
किस्मत तलाशते बच्चे,
कहीं प्यार, अपनापन,
और आश्रय तलाशते बड़े (बुजुर्ग) ।

सूखी तपती धरती,
लूटते- मरते किसान,
कच्ची मोहब्बत में,
कई दे रहे अपनी जान।

व्यस्त मगर,
बेहद छोटी जिंदगी,
चुपके से , कभी अचानक ,
आती मौत।

और भी,
कई मंजर ,
देखती हैं,
मेरी आंखें .

मगर मौन,
हैं , मन भी,
और नयन भी,
क्या मैं पत्थर हो गया हूँ ?

7 टिप्‍पणियां:

  1. जैसे आप
    वैसे ही मौन हैं करोड़ों करोड़ लोग
    पत्थर हो गए हैं वाकई
    इस मौन को तोड़ना होगा
    तभी निकलेंगे
    नए रास्ते।

    जवाब देंहटाएं
  2. शायद, और साथ में मैं भी.... एक बार और याद दिला दिया आपने

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह, बहुत उम्दा.
    बधाई.

    ------------------------

    आप हिन्दी में लिखते हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं इस निवेदन के साथ कि नये लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें-यही हिन्दी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है.

    एक नया हिन्दी चिट्ठा किसी नये व्यक्ति से भी शुरु करवायें और हिन्दी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें.

    शुभकामनाऐं.

    -समीर लाल
    (उड़न तश्तरी)

    जवाब देंहटाएं
  4. ये जीवन है इस जीवन का यही है यही है यही है रंग रूप

    हृदयस्पर्शी रचना!

    जवाब देंहटाएं
  5. aap sab kaa bahut bahut dhanyavaad. shayad ek na ek din hum sab apnee ye pashaanee chuppi tod sakenge.

    जवाब देंहटाएं

टोकरी में जो भी होता है...उसे उडेलता रहता हूँ..मगर उसे यहाँ उडेलने के बाद उम्मीद रहती है कि....आपकी अनमोल टिप्पणियों से उसे भर ही लूँगा...मेरी उम्मीद ठीक है न.....

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