प्रचार खिडकी

गुरुवार, 2 जुलाई 2009

लिब्रहान आयोग : सत्रह साल ज्यादा तो नहीं हैं....



तो आखिरकार ..लिब्रहान आयोग ने अपनी रिपोर्ट दे ही दी...वो तो देनी ही थी कभी न कभी...और इससे अनुकूल समय और हो भी नहीं सकता था....मुझे ये समझ में नहीं आ रहा कि ..राजनितिक दल तो खैर आदतन ..जो करती हैं उससे अलग कुछ और करेंगे..इसकी न तो किसी को अपेक्षा है ना ही शायद जरूरत. मगर मुझे हैरानी तो इस बार पर हो रही है की आखिर आम लोग क्यों अपनी तीखी प्रतिक्रया दे रहे हैं...क्या इसलिए की आयोग के रिपोर्ट देने में इतना लंबा समय लगा...क्या इसलिए की उस पर इतना सारा पैसा खर्च किया गया..क्या इसलिए की उसे अब... जानबूझकर अब पेश किया गया है...मेरे विचार से तो सभी प्रश् बेमानी हैं.

दरअसल भारत में आयोगों के गठन , उनकी रिपोर्टों, उनमें अनुशंषित तथ्यों, और सबसे बड़ी राजनितिक दलों, सरकार द्वारा उसके प्रति संजीदगी या उपेक्षा का जो इतिहास रहा है , उसे देख कर तो स्पष्टतः यही लगता है कि सिर्फ कुछ आयोगों को छोड़ दिया जाए तो ..जहां इन आयोगों का गठन ..भी राजनीति प्रेरित होता है..और रिपोर्ट भी ..परिणामतः उसका प्रभाव भी..चाहे वो गोधरा काण्ड के बाद गठित हुए आयोग हों...या चौरासी के सिक्ख दंगों के बाद गठित आयोग ..सबका एक ही हश्र हुआ है..कुछ दिनों तक आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति..भविष्य के लिए सरकार के कई वाडे..और कुछ दिनों बार सबको भुला बैठना...और यदि मामला/विषय राजनितिक हो तो ..फिर तो इसकी पूरी कार्यवाही और रिपोर्ट ..दोनों ही महज एक खानापूर्ती से बन कर रह जाते हैं...आखिर इन आयोगों का गठन..और फिर उनका असीमित समय तक स्थगन पर स्थगन होता ही क्यूँ है..मुझे इस विषय में किसी संवैधानिक उपबंध के बारे में ज्ञान नहीं है..मगर एक आम आदमी की तरह सोचूं तो यही लगता है ..किसी भी आयोग के गठन के समय ही इस बात का स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए कि ...इसकी अधिकतम जांच सीमा..इतनी समय तक होगी....उसके बाद उसे औचित्यहीन मान लेना ही श्रेयस्कर ...यदि इस आयोग की रिपोर्ट आज से दस साल पहले भी आ जाती तो क्या हो जाता..क्या जिन लोगों को दोषी बताया जाता ..वे इस बात को मान लेते और क्या ..सरकार इतनी हिम्मत दिखा पाती कि उन्हें सजा दे पाती..हाँ कुछ राजनितिक समीकरण...कुर्छ सांठ-गाँठ ..शायद अलग होते.....

किन्तु इस आयोग और अन्य आयोगों के विलंब से ..या उनके लगभग पचास बार स्थगन ..करने की प्रवृत्ति उन्हें अपने आप तो नहीं लगी है ..संविधान में ..आरक्षण की व्यवस्ता सिर्फ दस वर्षों के लिए की गयी थी...आज पता नहीं कितनी बार उसे स्थगन दे दे कर आगे बढाया जा चुका है..और निकट भविष्य में कोई सरकार इसे समाप्त कर पायेगी ऐसा नहीं लगता......संविधान में ये भी व्यवस्था रखी गयी थी..कि सरकार जल्दी ही राजकाज की भाषा को पूर्णतया हिंदी कर लेगी..और तब तक अंगरेजी का प्रयोग किया जा सकता है..ये भी शुरू के दस वर्षों के लिए था..आज हालत आपके सामने हैं..और ऐसे कितने ही कानून..कितनी ही समस्याएं हैं...जिनके लिए बार बार समय सीमा तय होने के बावजूद ..हर बार उन्हें समय मिल जाता है..और तो और एक सड़क निर्माण से पहले भी ..हम ये नहीं पूछ सकते ..कि इसकी समय सीमा ..आखिर कुछ तो न्यूनतम हो..जिससे पहले उसकी खुदाई न हो ...तो फिर बेचारे इस आयोग पर ही सारा गुस्सा क्यूँ..आखिर बालिग़ होने (अट्ठारह वर्ष ) से पहले ही आ तो गया सामने......

6 टिप्‍पणियां:

  1. रिपोर्ट पेश हो गयी उसके बाद हंगामा करना तो बेमानी है, पहले कहना चाहिए था .

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  2. हमारे देश मै जो ना हो वो कम है, इन कमीने नेताओ ने हमारे देश को सदियो पिछॆ धकेल दिया है, वरना हमारे देश मै पढे लिखे ओर समझदार लोगो की कमी नही, अगर इन लोगो को मोका मिले तो हम दुनिया की सब से बडी ताकत बने.
    अब ऎसे आयोगो को कमेटियो पर ध्यान देना बन्द कर दिया, यह सब बेमानी है जिन का मतलब सिर्फ़ अपनी कुर्सी बचाये रखना है, चाहे इस कुर्सी लाशो पर बने.
    धन्यवाद

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  3. शुक्र मनाओ रपट आ गई, वरना अभी और पैसा फूँका जाता. होनी जानी कुछ है नहीं, जय हो...

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टोकरी में जो भी होता है...उसे उडेलता रहता हूँ..मगर उसे यहाँ उडेलने के बाद उम्मीद रहती है कि....आपकी अनमोल टिप्पणियों से उसे भर ही लूँगा...मेरी उम्मीद ठीक है न.....

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