प्रचार खिडकी

सोमवार, 29 जून 2009

बारिश और बिजली (व्यंग्य)





उस दिन आसमान में छाये काले बादलों के झुंड को चातक पक्षी की तरह निहारते हुए बोले, यार अब तो इन बादलों को देखकर लगता है जैसे शहर की सारी गाड़ियों का काला धुंआ चिमनी से ऊपर जाकर इकठ्ठा हो जाता है. सिर्फ काला काला ही दिखता है..कभी गीला गीला होता नहीं

अच्छा तो बारिश का इन्तजार हो रहा है.., लपटन बोले,

नहीं नहीं बिजली का...हमने जवाब दिया..

उन्होंने हमें कुछ इस तरह के भाव के साथ देखा जैसे भाव गणित की पुस्तक का कवर देखते ही हमारी चेहरे पर आ जाते थे.बारिश और बिजली ..कैसी पहेली है..यही सोच रहे हैं न मियाँ लपटन , आरे आइये हम विस्तार से समझाते हैं..आपको...

महानगरों में गर्मी का एहसास होते ही बिजली ऐसे बिदक जाती है जैसे कोई प्रमिका शौपिंग के लिए मन करने पर बिदकती है. ओ सरकारी और व्यापारी दोनों के बूते से बाहर हो जाता है शहर को रात में गाँव बनाने से बचाना. ऐसे में एक ही दलील होती है की मांग अधिक हो रही है . अब इन्हें कौन समझाए की जनसँख्या का पेट फटने से भी जहां बच्चों की मांग नहीं घाट रही है वहाँ बिजली की मांग क्या ख़ाक घटेगी और जो घट ही जाए तो मांग कैसी...ऐसे में बस एक ही आसरा होता है बारिश का. बारिश से गर्मी की तपिश कम हो जाए तो शायद कूलर वैगेरह कम चलें. ऐसी का इससे कोई लेना देना नहीं है, क्यूंकि उसका रिश्ता गर्मी से नहीं बल्कि स्टेटस से ज्यादा है.समझे लपटन मियां,,अब आगे सुनो

पहले तो बारिश की चार बूँदें पड़ते ही बिजली गुल हो जाती है, मगर बारिश बंद होते ही waapas नहीं आती. तो हुई न पहली बचत, हमने समझाया. न, न, इस कटौती से लोगों को कोई शिकायत नहीं होती हो भी क्यूँ भाई ये तो सुरक्षा के दृष्टिकोण वाली कटौती होती है न. लोगों की सुरक्षा के प्रति vidyutkarmiyon की भावना के आगे लोगों के क्रोध की भावना शांत हो जाती है. इसके बाद नंबर आता है शहर की ट्रैफिक लाईटों में खपत होने वाली बिजली की बचत का. बारिश में शहर की आधी सड़कें तो जल यातायात के उपयुक्त हो जाती हैं ऐसे में सड़क यातायात निर्देशों की क्या आवश्यकता..

हालांकि दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में पिछली बरसातों के बाद जैसा पानी इकठ्ठा हुआ था उसके बाद से ऍम एक विचार जोर पकड़ता जा रहा है . यदि जहग जहग बाँध बना कर बारिश के इस इक्केट्ठे पानी द्वारा भी हम सड़क पर ही विद्युत उत्पादन कर लें तो क्या ख़ाक कम पड़ेगी बिजली...यानि आम के आम गुठलियों के दाम बारिश का एक बड़ा फायदा बिजली बचत परिप्रेक्ष्य में ये होता है की लोग न तो शौपिंग के लिए मॉल में जा पाते हैं न ही सिनेमा देखने के लियेपिक्चार हॉल में . इससे मॉल और सिनेमा ठीयातारों में चलने वाले ऐसी नियोन लाईट्स वैगेरह भी कम जलती हैं..और तो और लोग घरों में भी अक्सर टी वी वाले कमरे में ही बैठकर चाय-पकौडे खाते हैं. बांकी कमरों की बिजली बंद..हेई न बचत

एक और बचत जो शायद सबसे बड़ी बचत होती है ,,झुग्गी बस्तियों वालों द्वारा तार न डालने से होने वाली बचत. आधी झुग्गी आबादी तो अपनी टपकती झुग्गी में बूंदों के नीचे ग्लास कटोरे लेकर वर्षा जल संचयन में लगी रहती है . बांक्यों को ये डर होता है की तार के साथ करंट मुफ्त की स्कीम के चपेट में न आ जाएँ. बारिश और बिजली की आपसी निर्भरता के गूढ़ शास्त्र को समझाने के उपरांत लपटन जी कहने लगे ...मियाँ ये शोध तो पेटेंट कराने लायक है. कम से कम सरकार तथा विद्युत कंपनियों को तो ये थ्योरी समझाई ही जानी चाहए. इसका मतलब महानगरों में बढ़ते बिजली संकट के लिए कहीं न कहीं इन्द्र देवता भी अवश्य ही जिम्मेदार हैं,,लपटन जी ने फरमाया .

हमने अपने बच्चे को कागज़ की नाव बनाकर दे दी है कह दिया है की जिस दिन ये नाव चलाने लायक पानी गली में इकठ्ठा हो जाए समझ लेना तेरा वीडीयो गेम बीच में नहीं रुकेगा. पुत्तर भी कागज़ की नाव और वीडीयो गेम के बीच का गणितीय सूत्र नहीं समझ प् रहा है.....

8 टिप्‍पणियां:

  1. समझा ऐसे ही कागज की नाव और वीडियो गेम वाला सम्बन्ध ग्रह नक्षत्रों की चाल और हमारे जीवन में रहता होगा ! सोचने वाली बात है !

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  2. कागज की नाव और विडियो गेम की तुलना तो बेमानी है ,सटीक लेखन ,सुंदर पोस्ट .

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  3. बहुत सटीक लिखा है. शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  4. क्या बात है कागज की कस्ती ओर विडियो गेम मजा आ गया, धन्यवाद

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  5. बहुत सही लिखा आपने।छत्तीसगढ के शहरो को मध्यप्रदेश से अलग होने के बाद रात को गांव नही बनना पड़ रहा है।

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टोकरी में जो भी होता है...उसे उडेलता रहता हूँ..मगर उसे यहाँ उडेलने के बाद उम्मीद रहती है कि....आपकी अनमोल टिप्पणियों से उसे भर ही लूँगा...मेरी उम्मीद ठीक है न.....

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