प्रचार खिडकी

शुक्रवार, 5 जून 2009

किस किस के दर्द का करें हिसाब ?


इतने निष्ठुर ,
इतने निर्मम,
ये अपने से,
नहीं लगते,
फिर किसने,
ये नस्लें ,
बोई हैं,

किस किस के,
दर्द का,
करें हिसाब,
लगता है,
पिछले रात,
शहर की,
हर आँख,
रोई है......

सपनो का,
पता नहीं,
मगर नींद तो,
उन्हें भी,
आती है,
जो ओढ़ते हैं,
चीथरे ,या
जिनके तन पर,
रेशम की,
लोई है.....

क्या क्या,
तलाशूँ ,इस,
शहर में अपना,
मेरी मासूमियत,
मेरी फुर्सत,
मेरी आदत,
सपने तो सपने,
मेरी नींद भी,
इसी शहर ,
में खोई है.....

ये तो,
अपना-अपना,
मुकद्दर है,यारों,
उन्होंने संभाला है,
हर हथियार ,अपना,
हमने ,उनकी,
दी, हर चोट,
संजोई है...

पर्यावर दिवस पर........

नदियाँ ,
लगती हैं,
नाले जैसी,
पानी बना,
जहर सामान,
लगता है ,
दुनिया ने,
अपने पाप ,
की गठरी,
धोई है...........

7 टिप्‍पणियां:

  1. लगता है ,
    दुनिया ने,
    अपने पाप ,
    की गठरी,
    धोई है.....

    वाह ! आप ने 'पर्यावर' लिखा है 'ण' छूट गया है। ठीक कर लें।

    जवाब देंहटाएं
  2. गिरजेश जी धन्यवाद...मैं पर्यावरण ही लिखना चाहता था....गलती के लिए क्षमा

    जवाब देंहटाएं
  3. सपनो का,
    पता नहीं,
    मगर नींद तो,
    उन्हें भी,
    आती है,
    जो ओढ़ते हैं,
    चीथरे ,या
    जिनके तन पर,
    रेशम की,
    लोई है.....

    अच्छी रचना अजय जी।

    किसी को पेट भरने को मयस्सर भी नहीं रोटी।
    बहुत से लोग खा खाकर यहाँ बीमार होते हैं।।

    जिन्हें रातों में बिस्तर के कभी दर्शन नहीं होते।
    बिछाकर धूप टुकड़ा ओढ़ अखबार सोते हैं।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

    जवाब देंहटाएं
  4. आप सबका बहुत बहुत aabhaar ,padhne और saraahne के लिए.......

    जवाब देंहटाएं

टोकरी में जो भी होता है...उसे उडेलता रहता हूँ..मगर उसे यहाँ उडेलने के बाद उम्मीद रहती है कि....आपकी अनमोल टिप्पणियों से उसे भर ही लूँगा...मेरी उम्मीद ठीक है न.....

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