प्रचार खिडकी

शनिवार, 1 दिसंबर 2007

दिल्ली : बेहतर या बदतर ?

इन दिनों चारों तरफ यही चर्चा है कि दिल्ली सुन्दर बन रही है, सज सवांर रही है और जल्दी ही दिल्ली-दिल्ली नहीं रहेगी । चाहे लंदन बन जाये या हो सकता है कि परिस जैसी लगे मगर यकीनी तौर पर दिल्ली नहीं रहेगी। यार, आख़िर ऐसा हो क्या रहा है ? ठीक है मेट्रो बन रही है, फ्लाई ओवोरों का जाल बिछाया जा रहा है। बडे बडे मुल्तिप्लेक्स और शोप्पिं मॉल्स बन रहे हैं। रिलायंस फ्रेश और एप्पल फ्रेश में फ्रेश लड़के-लड़कियां सबकुछ बेच रहे हैं। मोबाईल,कोम्पुटर से तरकारी-भाजी तक। हमारी दिल्ली में अब तो विदेशों तक से लड़कियां आ रही है सेक्स रैकेट चलाने। लोग सड़कों पर गाडियाँ भी इसी स्पीड से दौडा रहे है मानो पैरिस -लंदन हों।

हाँ मगर अब भी दिल्ली का कोई चौराहा ऐसा नहीं है जहाँ पर भिखारी ना मिलते हों। अब भी दिल्ली का कोई कोना ऐसा नहीं है जहाँ बिजली पानी कि किल्लत ना हो रही हो। अब भी कोई हफ्ता ऐसा नहीं बीतता जब किसी ना किसी सड़क पर घंटों जाम ना लगता हो । अब भी कोई ऐसी जगह नहीं है जहाँ पर गाडियाँ
चोरी ना हो रहीं हों , महिलायें बिल्कुल सुरक्षित महसूस करती हों, कोई ऐसी सड़क नहीं है जहाँ पर रोड एक्सीडेंट ना हो रहे हों। कोई ऐसा ऑफिस नहीं है जहाँ पर बिना सिफारिश या बिना पैसे के आपका काम हो जाये , कोई ऐसा हॉस्पिटल नहीं है जहाँ जाते ही आपका इलाज हो जाये ?

तो ऐसे में तो दो ही बातें हो सकती हैं कि या तो ये सारी बातें पैरिस -लंदन में भी होती होंगी , या फिर
सब झूठ कह रहे हैं और दिल्ली दिल्ली ही रहेगी। आपको क्या लगता है ?

3 टिप्‍पणियां:

टोकरी में जो भी होता है...उसे उडेलता रहता हूँ..मगर उसे यहाँ उडेलने के बाद उम्मीद रहती है कि....आपकी अनमोल टिप्पणियों से उसे भर ही लूँगा...मेरी उम्मीद ठीक है न.....

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