प्रचार खिडकी

शनिवार, 15 मार्च 2008

झूठ कहता है ये आईना (एक कविता या पता नहीं क्या )

मुझे शिकायत,
रहती है,
अपने,
आईने से,
जो मेरे ।
आसपास,
रहते हैं,
वो सच,
कहते हैं, कि,
मैं कितना ,
अच्छा और,
सच्चा हूँ,
मगर ये,
आईना जो,
मेरे सामने,
रहकर भी,
झूठ पर झूठ,
कहता है, कि,
मैं जो दिखता हूँ,
वो नहीं हूँ...

ये आईना मुझसे अक्सर झूठ क्यों कहता है , क्या आपको पता है ?

मेरा अगला पन्ना :- टिपयाने का (अरे त्तिप्प्न्नी करने का यार,) अपना ही मज़ा है .

6 टिप्‍पणियां:

  1. aaiina, jaane kya jhooT jaane kyaa sach kahata hai...

    par kavita achchii hai...

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  2. जो आईने के सामने होता है
    वही हमे आईना दिखलाता है
    आईना पर न हो भरोसा यारो
    तो आईना को अजमा लो यारो

    कविता अच्छी लगी तो मैंने भी सोचा आईना पर ही चार पंक्तियाँ प्रेषित
    कर दूँ .

    जवाब देंहटाएं
  3. aaina vahi dikhata hai jo usse nazar aata hai:)bahut sundar kavita

    जवाब देंहटाएं
  4. आपकी कविता अच्छी लगी ,आईना पर दो पंक्तियाँ मेरी भी सुन लें-
    पत्थरों ने प्यार से पूछा की सुन ये आईना -
    तू बता हम किस तरह अपनी गुजारें जिंदगी !

    जवाब देंहटाएं
  5. lagtaa hai ki aap sab gaur se aainaa dekhte hain, mujhe aainaa dikhaane kaa shukriyaa.

    जवाब देंहटाएं

टोकरी में जो भी होता है...उसे उडेलता रहता हूँ..मगर उसे यहाँ उडेलने के बाद उम्मीद रहती है कि....आपकी अनमोल टिप्पणियों से उसे भर ही लूँगा...मेरी उम्मीद ठीक है न.....

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