प्रचार खिडकी

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

कर्ज (एक लघु कथा )

"मालिक थोडे से पैसे उधार दे दो , अबकी बार फ़सल अच्छी हुई तो सब चुकता कर दूंगा "भुवन गिडगिडाया ॥

"चल चल, जब देखो मुंह उठाए चला आता है कभी किसी बहाने तो कभी किसी बहाने । तेरा पिछला ही कर्जा इतना है कि उसका सूद ही तू नहीं चुका पाएगा मूल तक की तो बात ही क्या । कितनी बार कहा तुझे कि अपनी वो बलका वाली जमीन दे दे , बेच दे उसे , तेरा सारा कर्जा उतर जाएगा । वो भी तू नहीं मानता ।"

" मालिक , वो जमीन कैसे दे दें , एक वही तो टुकडा बचा है आखिरी सहारा बच्चों को पेट भर खिलाने के लिए । अगर वो भी दे दें तो करेंगे क्या मालिक । मालिक मेरी मां बहुत बीमार है ...इलाज के लिए शहर के अस्पताल ले जाना होगा ....उसी के लिए बस बीस हजार रुपए चाहिए थे मालिक ....." भुवन कहते कहते मालिक के पांव पकड चुका था ॥

तभी उसका छोटा बेटा बबलू दौडता आता दिखा ," बापू, जल्दी चलो दादी कुछ बोलती नहीं "

भुवन झटके से उठा और घर की ओर सरपट दौड लिया । मां दम तोड चुकी थी । मां की लाश से लिपट लिपट के रो रहा था भुवन दहाडें मार मार के । सभी आस पडोस से इकट्ठे हो रहे थे घर के आंगन में । भुवन को अपनी बेबसी पर एक आत्मग्लानि सी हो रही थी जो उसका दर्द और बढा रही थी । पत्नी भी वहीं साथ ही बैठ कर भुवन के साथ रो रही थी । भुवन को ज्यादा विलाप करता देख , धीरे से उसके कान में कह उठी ," सुनो , इश्वर की यही मर्जी थी शायद , मां के जाने से तुम पर आने वाला कर्जा तो बचा । भुवन को अचानक ही एक अनचाहा संतोष सा हो गया था ॥ पहले की अपेक्षा अब उसका रोना थोडा कम था ॥

तभी मालिक भी आ पहुंचे ," देखो भुवन , अब भगवान जैसा चाहता है वैसा ही होता है ...उसकी मर्जी के आगे कहां किसी की चलती है , तुम घबराओ मत । समाज तुम्हारे साथ है , मैं तुम्हारे साथ हूं । माता जी के श्राद्ध कर्म और भोज के लिए तीस चालीस हजार की जरूरत तो पडेगी ही तुम्हें , मगर मैं हूं न , कहीं जाने की जरूरत नहीं है , सब इंतजाम हो जाएगा ॥"

मालिक को बलका वाली शानदार जमीन दिख रही थी और भुवन को शहर में भटकता हुआ अपना परिवार और वो खुद ॥

12 टिप्‍पणियां:

  1. यह पूंजी के संकेन्द्रण की प्रक्रिया है। जब तक पूंजी पर वैयक्तिक अधिकार रहेगा, प्रक्रिया जारी रहेगी।

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  2. ग्रामीण जन-जीवन के यथार्थवादी क्रूर पाखण्ड का चेहरा सामने आता है।

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  3. देश की उपरी चमक दमक से लगता तो है कि हम प्रेमचन्द की ग्रामीण भारत सं ऊर उठ चुके हैं लेकिन यह सच्चाई अब भी चारों ओर पसरी हुई है।

    प्रमोद ताम्बट
    भोपाल
    www.vyangya.blog.co.in
    www.vyangyalok.blogspot.com

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  4. अच्छी कहानी है...क्या कभी बदलेगा,ये समाज?...कभी ये बातें,इतिहास होंगी?

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  5. मार्मिक कहानी...समाज को आईना दिखाती!

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  6. बिलकुल प्रेमचन्द की परम्परा में लिखी इस कथा को पढकर मन विद्रोह से भर उठा ।

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  7. ये कहानी कम सच ज़्यादा है।

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टोकरी में जो भी होता है...उसे उडेलता रहता हूँ..मगर उसे यहाँ उडेलने के बाद उम्मीद रहती है कि....आपकी अनमोल टिप्पणियों से उसे भर ही लूँगा...मेरी उम्मीद ठीक है न.....

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