प्रचार खिडकी

बुधवार, 6 फ़रवरी 2008

वो लड़कपन के दिन (एक कविता )

काश कि ,
कभी उन,
लड़कपन के,
दिनों में फिर से,
जो लॉट मैं पाता॥


खुदा कसम,
उस बचपने और,
उस मासूमियत से,
यहाँ फिर कभी मैं,
न लॉट के आता॥

वो कागज़ की नाव,
वो कागज़ की प्लेन,
और कागज़ की पतंग,
हर बच्चा, हर रोज़,
कागज़ की कोई दुनिया बनाता॥

कभी पतंगों की लूट,
कभी झगडे झूठ मूठ,
वो छोटी सी साइकल,
उसकी घंटी की टन टन , अब,
कार में कहाँ वो आनंद है आता॥

वो होली-दिवाली का,
महीनों पहले से इंतज़ार,
कहाँ भूल पाया हूँ,
वो बचपन का प्यार, काश कि,
खुदा फिर उससे मिलाता॥

कभी बाबूजी की दांत, कभी माँ का लाड,
कभी काच्चे अमरुद, कभी बेरी का झाड़,
बीता जो लड़कपन तो ,
बना ये जीवन पहाड़, काश कि,
ये पहाड़ मैं कभी चढ़ न पाता॥

काश कि ,
कभी उन,
लड़कपन के,
दिनों में, फिर से,
जो लॉट मैं पाता॥????


क्या आपको भी वो दिन सताते हैं , या कि कुछ याद दिलाते हैं??

3 टिप्‍पणियां:

टोकरी में जो भी होता है...उसे उडेलता रहता हूँ..मगर उसे यहाँ उडेलने के बाद उम्मीद रहती है कि....आपकी अनमोल टिप्पणियों से उसे भर ही लूँगा...मेरी उम्मीद ठीक है न.....

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...