प्रचार खिडकी

गुरुवार, 28 फ़रवरी 2008

अतीत की एक खिड़की (कविता )

अतीत की,
इक झरोखा ,
जबसे,
अपने अन्दर,
खोला है॥

आँगन के,
हर कोने पे,
टंगा हुआ,
बस,
खुशियों का,
झोला है॥

तोतों के,
झुंड मिले,
तितलियों की,
टोली भी,
बरसों बाद ,
सुन पाया,
मैं कोयल की,
बोली भी॥

आम चढा ,
अमरुद चढा ,
नापे कई,
नदी नाले भी,
बन्दर संग ,
मिला मदारी,
मिल गए ,
जादू वाले भी॥

नानी से फ़िर,
सुनी कहानी,
दादी ने ,
लाड दुलार किया,
गली में मिल गयी,
निम्मो रानी,
जिससे मैंने , प्यार,
पहली बार किया॥

बारिश पडी टू,
नाचे छमछम,
हवा चली और,
उडी पतंग,
मिली दिवाली,
फुल्झाध्यिओं सी,
इन्द्रधनुष से,
होली के रंग॥

फ़िर इक,
हल्का सा,
झोंका आया,
खुली आँख और,
कुछ नहीं पाया॥

काश , कभी,
वो छोटी खिड़की,
यूं न बंद होने पाती,
ख़ुद खोलता,
मैं उसको,
रोज ये जवानी,
बचपन से ,
जा कर मिल आती॥

अफ़सोस की ये खिड़की सिर्फ़ तभी खुलती है जब मैं गहरी नींद में होता हूँ.

9 टिप्‍पणियां:

  1. अरे विन्डोज़ नहीं हैं क्या?....दैट्स द इन थिंग!!
    :)

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  2. गजब खिड़की....वाह...बेहतरीन भाई!!

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत बढिया.....मज़ा आ गया....

    अपने संग हमें भी बचपन में ले चलने का शुक्रिया .....

    जवाब देंहटाएं
  4. वाह क्या खूब लिखा है। सच बड़े होने के बाद तो बचपन सपने मे ही आता है।

    जवाब देंहटाएं
  5. वाह,बहुत खूब्…सुंदर भाव,

    अजय जी , बड़ी प्यारी रचना …ऊपर की पंक्ति में यदि …अतीत की, कि जगह अतीत का, कह दें तो पढ़ने मे और भी लय आ जायेगी…… umeed hai अन्यथा nahii.n lege

    जवाब देंहटाएं
  6. बचपन व अतीत दोनों ही अच्छे लगते हैं । वैसे बचपन क्या कभी पूरा जा पाता है ?
    बहुत अच्छी कविता !
    घुघूती बासूती

    जवाब देंहटाएं
  7. parul jee ,
    main asal mein kaa hee likhnaa chah raha tha magar jaldi mein shaayad kee likha gaya. dhanyavaad.

    जवाब देंहटाएं

टोकरी में जो भी होता है...उसे उडेलता रहता हूँ..मगर उसे यहाँ उडेलने के बाद उम्मीद रहती है कि....आपकी अनमोल टिप्पणियों से उसे भर ही लूँगा...मेरी उम्मीद ठीक है न.....

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