प्रचार खिडकी

रविवार, 17 फ़रवरी 2008

एक कविता

फ़ैली है रोशनी,
और,
जश्न का माहौल,
छाया हर ओर है ॥

पर बीच बीच,
इसके दर्द का,
चीख का उठता ,
कैसा ये शोर है॥

नींद से बोझिल नयन,
तन-मन बिल्कुल थका हुआ,
अँधेरा है और उदासी भी,
आज कैसी ये भोर है॥

यूं हर खुशी है सबके पास,
पर अपने तक है ये एहसास,
दूसरे के लिए करने-देने को,
हर आदमी कमजोर है॥

मैं मरहम की ख्वाहिश नहीं करता,
जख्म यूं भी भर जायेंगे,
पर रोज़ एक नई चोट से मन,
दुखता पोर -पोर है॥

3 टिप्‍पणियां:

टोकरी में जो भी होता है...उसे उडेलता रहता हूँ..मगर उसे यहाँ उडेलने के बाद उम्मीद रहती है कि....आपकी अनमोल टिप्पणियों से उसे भर ही लूँगा...मेरी उम्मीद ठीक है न.....

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