कल की पोस्ट में जब कहा कि केले खाने का मन नहीं था , तो उसके पीछे कोई विशेष कारण नहीं था बल्कि ,केले खाने का मन इसलिए नहीं था क्योंकि उस गर्मी में पौलोथिन में शायद उतनी बुरी हालत उनकी न भी होती जितनी कि हम दोनों जन के बीच में पिस जाने से हुई । अब इस हालत में उन केलों को उन्हीं जाम में बाहर सडक किनारे विसर्जन करना ही उनको सच्ची श्रद्धांजलि होती , और हमने भी दे ही दी । बस मजे में टनटना कर रुक गई थी और सवारियां भी बाहर निकलने के लिए बेताब थीं । हमने भी कौन सा सुरक्षा पेटियां बांधी हुई थीं सो हम भी बाहर को निकल लिए ।
वाह क्या नजारा था , ऐसा लग रहा था मानो बौर्डर पर लगे जाम को फ़ुल्ल्म फ़ुल इंज्वाय किया जा रहा था । पुलिस अपने काम में मशगूल थी जैसे तैसे आढे टेढे करके ट्रकों को टोल टैक्स लेकर , और शायद कुछ अपना टैक्स लेकर भी, निकलने की जगह दी जा रही थी । वहां लगने और लगाए जाने वाले नियमित जाम का ही असर था ये शायद कि वहां पर बहुत बडी तादाद में खाने पीने के चीज़ें बेचने वाले खडे थे । हम दोनों भी बस में लग रही उमस से बचने और कुछ पेट पूजा के जुगाड में नीचे उतरे । और कुछ ऐसा ही मोबाईल खाद्य पदार्थ ले लिया । थोडी देर सभी सवारियां सडक किनारे खडी होकर हाथ पांव सीधी करती रहीं । तभी कंडक्टर ने ईशारा किया चलिए अंदर सब । थोडी देर के बाद बस सरकने लगी और आधे घंटे में हम जाम के बाहर थे । मौसम में बढती उमस ने बता दिया था कि बहुत जल्द ही तेज़ बारिश हो सकती है , और हुआ भी वही । थोडा सा आगे बढने पर तेज़ तूफ़ानी अंधड चलने का एहसास हुआ बस की स्पीड अपने आप कम हो गई ।इसके बाद झमाझम बारिश । बारिश इतनी तेज़ थी कि ड्राईवर को न चाहते हुए भी एक जगह पर साईड करके बस को रोक कर खडा होना पडा ।
बारिश की रफ़्तार थोडी कम हुई तो बस ने धीरे धीरे अपनी रफ़्तार बढानी शुरू की । आगे जाकर बारिश बंद हो गई थी और ठंडी हवाएं तन मन को सुकून पहुंचा रही थीं । आगे बैठे हुए कडंक्टर को बता दिया गया था कि हमें कहां उतरना है । वो शायद किसी चाय बागान का पता था जो कि सिलिगुडी शहर से थोडा पहले पडता था , हम बता कर चुपचाप फ़िर झपकी मारने लगे । नींद तब खुली जब कंडक्टर ने बाकायदा झंझोड के उठाया और बताया कि बाबूजी उठिए , आपका स्टौप आने वाला है । मेरी तो आंखें खुलते ही जो नज़ारा मुझे दिखाई दिया उसने देखने की शक्ति को दोगुना और सुनने की शक्ति को आधा कर दिया । गुलाब जी उससे पूरी जानकारी ले रहे थे । और हम खिडकी पर मौजूद होने का पूरा फ़ायदा उठाते हुए मीलों तक फ़ैली हुई हरियाली को निहार कर तरे जा रहे थे । समझ रहे थे कि अगले तीन चार दिन आंखों के लिए बडे ही अनमोल रहने वाले हैं ।
बस में से देखा कि दोनों तरफ़ चाय बागानों की हरियाली फ़ैली हुई थी । ऐसा लग रहा था जैसे पहाडियों ने हरी चादर ओढ रखी है , नहीं चादर नहीं शायद लहर दार दुशाला , बारिश में धुल कर चाय के पौधों की पत्तियां यूं चमक रही थीं , मानों कह रही हों ये है धरती का असली रंग । सडक बिल्कुल सपाट और सीधी । सुबह लगभग साढे नौ बजे हम एक चाय बागान के स्टौप पर उतर गए । गुलाब जी को मोहन जी ने बता दिया था सारा पता सो उन्हीं के निर्देशों का पालन करते हुए हम लोग वहां उतर गए थे । उतर के देखा तो मोहन जी भी मजे में वहीं हमारा इंतज़ार कर रहे थे । गुलाब जी का वहां पर रुकना पहले से तय था मगर हमारी कुछ टालमटोल थी , सो हमें भी साथ आया देख मोहन नी प्रसन्न हो उठे , आखिर कल होने वाली बैंकिंग परीक्षा के टिप्स भी तो हमारे साथ ही थे ।
रात को वहां भी बारिश हुई थी , मगर पहाडों की यही तो खासियत होती है कि बारिश के बाद पानी ठहरने , कीचड कादो होने की कोई गुंजाईश नहीं होती । हम सब उस छोटी छोटी बजरीली भूमि के कच्चे मगर चौडे चढाईनुमा रास्ते पर बढते जा रहे थे । मैं कब से चाय के पौधों को एक बार छूना चाहता था , सो सबसे पहला काम तो वही किया कि के पौधे पर हाथ फ़ेरा । मेरी आशा के विपरीत उन पौधों की पत्तियां कडी थीं , बहुत ही सख्त । हां ऊपर की छोटी छोटी नई पत्तियां जरूर कोमल थीं । मोहन जी , जो चार दिन पहले से डटे हुए थे उनसे कुछ जानना चाहा तो उन्होंने कहा , यार चाचा जी से ही पूछना कुछ भी हम तो बस पढाई में व्यस्त रहे । हमें बाद में जाकर पता चला कि वे अपने चाचाजी के पडोस में स्थित एक घर में रह रहे परिवार में एक जबरन बनाए हुए एक भैय्या और भौजाई के यहां भौजाई की छोटी बहिन जी के साथ पढाई कर रहे थे । वहां उन्हें भरपूर आदर सत्कार के साथ उदर संतुष्टि भी इसलिए मिल रही थी ,क्योंकि भौजाई को पता चला था कि मोहन जी जल्द ही बैंक में बडे अफ़सर लगने वाले हैं , और उन्हें ये भी पता था कि बैंक में काम करने वालों को पैसे को कोई कमी नहीं रहती , सारा पैसा उनका अपना होता है । खैर , एक और चीज़ जो मुझे आकर्षित कर रही थी वो थी वहां के बांस । ऐसे बांस मैंने पहली बार देखे थे ।
आम तौर पर मिलने वाले बांसों से बिल्कुल ही अलग , हल्के हरे रंग के , लंबे कम मगर मोटाई चौडाई बहुत ज्यादा । देखने पर लग रहा था जैसे पोपले से हों , मगर खासे मजबूत । इसका अंदाज़ा भी इस बात से हुआ कि आगे जाकर देखा तो वहां लोगों ने अपने घर झोपडियां बनाने में उसका भरपूर उपयोग किया हुआ था । पक्के मकान के नाम पर अब तक जो दिखा था वो मोहन जी के चाचा जी वाला स्कूल था । हम लोग शायद एक किलोमीटर चल चुके थे , मगर पता ही नहीं चल रहा था , चढाई होने के बावजूद । सुबह की चमकीली धूप और ठंडी हवा , कुल मिला के कौकटेल का मजा दे रहे थे , और चखना के रूप में चारों ओर फ़ैली हरियाली थी ही । थोडी देर में चाचाजी के घर पहुंच चुके थे । वहां ज्यादा आबादी नहीं थी । चाचाजी से पूछा तो उन्होंने बताया कि चाय बागानों में काम करने वाले मजदूर सभी स्थानीय लोग ही थे । यहां तो टाटा साहब के अन्य संस्थानों , मसलन वहां स्थित स्कूल, अस्पताल आदि में कार्यरत कर्मचारी लोग ही थे । कोई जगह की कमी नहीं , जिसको जहां मन था घर बना लिया गया था , वही बांस वाला ।
चाचीजी हम लोगों को देख कर बहुत ही खुश थीं । हमें वो नहीं पहचानती थीं , मगर बाबूजी को जरूर जानती थीं सो जान गईं कि हम आखिर हैं कौन । जाते ही गर्मागर्म चाय मिली । मगर ये क्या गुलाबी रंग की चाय उस चाय से खुशबू भी एकदम अलग सी आ रही थी । मैंने अचंभित होकर थोडा सा झिझकते हुए चाची की तरफ़ देखा तो वे बोलीं बेटा ये चाय सीधा चाय के पौधों से तोडी गई कोमल पत्तियों की है , हम यहां यही चाय पीते हैं , तुम्हें अच्छी लगेगी । यकीन मानिए मैंने अब तक कुछ यादगार प्यालियां सुडकी हैं चाय की उनमें से एक ये भी थी । ठंडे ठंडे पानी से नहा धो कर हम थोडा सा तैयार शैयार हुए । परीक्षा कल थी , गुलाब और मोहन जी की पहली पाली में तो मेरी दूसरी पाली में । चाची ने कहा कि हम थक कर आए होंगे इसलिए हमें थोडा आराम कर लेना चाहिए । मगर मन कहां मानने वाला था सो हमने सबने तय किया कि अभी थोडी देर में नाश्ता वैगेरह करके आसपास ही घूमा जाए ।
चाची ने गर्मा गर्म रोटियां बनाई , और वो भी सफ़ेद उजली बिल्कुल झक , खाया तो पता चला कि चावल के पिसे हुए आटे की थीं , साथ में अपनी गैया का गर्मा गर्म दूध और गुड । ओह ये वो रेसिपि है जो दुनिया में कहीं और नहीं मिल सकता न ही किसी खाने खजाने में वो स्वाद मिल सकता था । हमने फ़टाफ़ट वो उडा कर बाहर का रुख किया । साथ में चाचा जी का बडा बालक राम , जो खुद भारतीय नेवी में जाने की तैयारी कर रहा था , हमारे साथ हो लिया । हमने राम से कहा कि हमें बागान और उसके आसपास की जगह घुमाए । राम ने बिल्कुल मंझे हुए गाईड की तरह हमें घुमाया । मीलों तक फ़ैले चाय के बागान , और चाय के पौधों , उनके रखरखाव , उनकी देखभाल , उनमें से पत्तियों का तोडा जाना , जैसी बहुत सी जानकारियां उसने दीं । राम ने बताया कि चाय का पौधा बहुत ही मजबूत होता है , इतना कि उसकी जडें और शाखें , टेबल और फ़ैसी फ़र्निचर के पाए बनाने के काम भी आते हैं । बरसात के बाद जब नई नई कोपलें और कोमल पत्तियां निकलती हैं तो वे ही चाय पत्ती बनाने के लिए तोडी जाती हैं । पुरानी पत्तियों को वैसे ही छोड दिया जाता है । समय समय पर उनमें खाद वैगेरह भी डाली जाती है ।
ओह .............ये प्रवास तो तीन चार दिनों का था सो आज भी सब कुछ नहीं कहा जा सकता .........तो फ़िर कल मिलते हैं न चाय के बागानों के बीच ॥
प्रचार खिडकी
बुधवार, 5 मई 2010
सिलिगुडी की यात्रा , गुलाबी चाय और बैंकिंग परीक्षा (यात्रा संस्मरण )
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अमां भाई लोगों खाली थोबडा देख कर ही पसंद टिका गए .....
जवाब देंहटाएंया पढी मगर टीपने की फ़ुर्सत नहीं मिली ....
और कहो कि संस्मरण बहुत पसंद आया ..चढा रहे थे न झाड पे ..अब भुगतिये ..मैं तो लिखता ही जाऊंगा । अब पसंद जो आ रही है आपको ...थम्स अप तो यही बता रहा है
very nice !
जवाब देंहटाएंरोचक यात्रा संस्मरण को खूबसूरती से पेश करती पोस्ट / उम्दा प्रस्तुती /
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