प्रचार खिडकी

शनिवार, 25 सितंबर 2010

पितृपक्ष और मां की आत्मा की तृप्ति .........अजय कुमार झा

मेरी मां


"हैलो ! भईया मैं संजय बोल रहा हूं ...सुनिये , पितृ पक्ष चल रहे हैं न , तो तिथि के अनुसार आज मां के लिए तर्पण करना था , ब्राम्हणों को खाना खिलाना था . दान पुण्य करना था । मगर आपको तो कुछ पता ही नहीं होगा न ....आप कौन सा सबके टच में रहते हैं , किसी से बात भी नहीं होती ज्यादा आपकी । वैसे तो ये आपका ही फ़र्ज़ है , मगर छोडिए आप लोग भी न ????" कह कर उसने फ़ोन काट दिया ।

एक सन्नाटा पसर गया था कमरे में , तभी सामने टेबल पर रखी मां की फ़ोटो से आवाज आई , " बेटे , क्या सोच रहा है । मेरे जाने के बाद जिस तरह से तू पिताजी की सेवा कर रहा है , उनका ध्यान रख रहा है ..उसे देख कर मेरी आत्मा तृप्त हो गई है बिल्कुल , तू चिंता मत कर मेरे लाल , बस पिताजी का ख्याल यूं ही रखते रहना ...बहुत बहुत प्यार और आशीर्वाद "

मां और पिताजी की एक तस्वीर , जब पिताजी रिटायर होकर आए थे
मैं अब निश्चिंत था कि , मुझे मां की आत्मा की तृप्ति के लिए ...अब किसी पितृपक्ष का मोहताज नहीं रहना होगा .....

5 टिप्‍पणियां:

  1. बिल्कुल सही कहा……………जो करना हो जीते जी किया जाये तभी सार्थक है।

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  2. क्या कहें...."माँ" शब्द के आगे तो कुछ बोला ही नहीं जाता...

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  3. आप ने सत्य लिखा है, जब हम जीते जी बुजुर्गो की सेवा कर दे तो फ़िर दिखावे की जरुरत ही नही बचती, आज कल श्राद्ध चल रहे है, यह मुझे ब्लांग दुनिया से ही पत चला, फ़िर कई बार दिल मे आया कि मै क्या ओर केसे करुं यह सब, तभी आत्मा से आवाज आई तुम्हे कुछ करने कि जरुरत नही, क्योकि जो तुम ने मां बाप के जिन्दा जी कर दिया वो ही सब था, अब अच्छा किया या बुरा..... यह तो मै ही जानता हुं, वेसे मां ओर पिता जी कई बार सपने मे आये ओर संतुष्ट दिखे, ओर अकसर उन से पुछ लेता हुं कि मां जो मै कर रहा हुं सही है या गलत तो मां सिर्फ़ सर पर हाथ रख देती है, ओर खुश होती है, पता नही यह मेरा वहम है या कुछ सच?
    आप भी पिता की सेवा कर रहे है, यही काफ़ी है, धन्यवाद

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  4. बहुत अच्छी बात लिखी है ..दिखावे के लिए किया जाये तो कोई मोल नहीं होता ...
    शुभकामनायें

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टोकरी में जो भी होता है...उसे उडेलता रहता हूँ..मगर उसे यहाँ उडेलने के बाद उम्मीद रहती है कि....आपकी अनमोल टिप्पणियों से उसे भर ही लूँगा...मेरी उम्मीद ठीक है न.....

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