प्रचार खिडकी

शनिवार, 7 जून 2008

एक कविता या पता नहीं और कुछ

इतने निष्ठुर,
इतने निर्मम,
ये बच्चे,
अपने से नहीं लगते,
फ़िर किसने ,
ये नस्लें ,
बोई हैं॥

किस किस के ,
दर्द का,
करें हिसाब,
लगता है,
पिछली रात,
शहर की,
हर आँख,
रोई है॥

सपनो का,
पता नहीं,
मगर नींद तो,
उन्हें भी,
आती है,
जो ओढ़ते हैं,
चीथरे, या ,
जिनके जिस्म पर
रेशम की,
लोई है॥

क्या क्या,
तलाशूं , इस,
शहर में अपना,
मेरी मासूमियत,
मेरी फुरसत,
मेरी आदतें,
सपने तो सपने,
मेरी नींद भी,
इसी शहर में,
खोई है॥

ये तो ,
अपना अपना,
मुकद्दर है, यारों,
उन्होंने , सम्भाला है,
हर खंजरअपना ,
हमने उनकी,
दी हुई,
हर चोट,
संजोई है..

5 टिप्‍पणियां:

टोकरी में जो भी होता है...उसे उडेलता रहता हूँ..मगर उसे यहाँ उडेलने के बाद उम्मीद रहती है कि....आपकी अनमोल टिप्पणियों से उसे भर ही लूँगा...मेरी उम्मीद ठीक है न.....

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