प्रचार खिडकी

गुरुवार, 12 जून 2008

ताज्जुब है ,


ताज्जुब है कि, ये ,
दुनिया फ़िर भी चलती है ॥

शहर की हर गली मैं, एक कोठी,
और इक झुग्गी मिलती है।
ताज्जुब है कि, ये ,
दुनिया फ़िर भी चलती है ॥


लख्ताकिया , फतफतिया, और सायकल,
लालबत्ती पर सारी रुकती है।
ताज्जुब है कि, ये ,
दुनिया फ़िर भी चलती है ॥


घर के एक कमरे से कातिल,
दूसरे से लाश निकलती है।
ताज्जुब है कि, ये ,
दुनिया फ़िर भी चलती है ॥


प्रेम , दोस्ती, रिश्ते की परिभाषा,
हर रोज़ बदलती है ।
ताज्जुब है कि, ये ,
दुनिया फ़िर भी चलती है ॥


गिरने के डर से ही, मैं नहीं दौडा,
वो रोज़ गिरती है, वो रोज़ संभलती है।
ताज्जुब है कि, ये ,
दुनिया फ़िर भी चलती है ॥


मैं समझ नहीं पाता, कैसे मेरे अन्दर,
प्यार भी पलता है, नफरत भी पलती है।
ताज्जुब है कि, ये ,
दुनिया फ़िर भी चलती है ॥


मुझको क्या पता था, जितना जहर मैं पीता हूँ,
उससे ज्यादा जहर तो मेरी गाडी उगलती है ।
ताज्जुब है कि, ये ,
दुनिया फ़िर भी चलती है ॥


बेटा जिस कोख में मारे किलकारी,
बेटी के लिए उसमें मौत ही पलती है।
ताज्जुब है कि, ये ,
दुनिया फ़िर भी चलती है ॥


हाँ , और दुःख की बात है कि ये दुनिया तो फ़िर भी चलती ही रहेगी ............

5 टिप्‍पणियां:

  1. सीधी भाषा मे बहुत गहरे भाव.
    अति सुंदर लिखा आपने.
    बहुत - बहुत बधाई.

    जवाब देंहटाएं
  2. बेटा जिस कोख में मारे किलकारी,
    बेटी के लिए उसमें मौत ही पलती है।



    बहुत गहरी रचना, बधाई.

    जवाब देंहटाएं
  3. सही कहा है कि दुनिया फ़िर भी चलती है।

    एक-एक शब्द मे सच्चाई है।

    जवाब देंहटाएं

टोकरी में जो भी होता है...उसे उडेलता रहता हूँ..मगर उसे यहाँ उडेलने के बाद उम्मीद रहती है कि....आपकी अनमोल टिप्पणियों से उसे भर ही लूँगा...मेरी उम्मीद ठीक है न.....

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