प्रचार खिडकी

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

वो छत, वो रात और वो यादें ......

उस दिन अचानक किसी परिचित के यहाँ बेबसी में रात्री में रुकने का कार्यक्रम बन गया। शहरों में परिचितों के यहाँ सिर्फ़ बेबसी में या किस स्वार्थ में ही रुका जा सकता है। किस अनापेक्षित कष्ट को और ज्यादा न बढ़ने की गरज से मैंने छत पर सोने का ही फैसला किया। इसलिए उनके से आग्रह को टाल कर मैं छत पर ही चादर दाल कर लेट गया। हवा में हल्की ठंडक ने जैसे एक घुटन से आजादी का एहसास कराया। यूँ तो दिल्ली में धुंए और धूल के आसमान के कारण रात को भी तारों की चमक फीकी रहती है मगर शायद ये अब तजा बारिश के कारण था की आसमान में करोड़ों तारे झिलमिला रहे थे। उन्हीएँ तारों में झाँका तो कहीं पीछे से अतीत झांकता नजर आया।लगभग दस-बारह साल पहले एक पिछडे से राज्ये के बहुत ज्यादा नहीं पिछडे गाँव में इसी तरह हम पाँच दोस्त , भविष्य की सभी चिंताओं और जिम्मेदारियों से मुक्त अक्सर एक दूसरे की छतो पर सो जाया करते थे। या फ़िर देर रात तक आसमान में तारों को मिलाकर नए नयी आकृतियों को ढूंढते थे। क्या दिन थे वे भी, तरुनाई के, लड़कपन के। सुबह पौ फत्ते ही आन्केहीं स्वयमेव खुल जाते थी। खेतों के बीच से निकलते हुए दूर खाली खेतों में शौच क्रिया से निवृत्त होने के बाद ही आम-जामुन बधार, आदि के बड़े बगीचों में घुसकर नीम, भेंट, चीचाद के दातुन तोड़, दांत मांजते पोखर तालाब तक पहुंचना। वहां काछे लंगोटों में पोखर में नहाने के साथ साथ तैरने के साथ साथ तरह तरह के खेल खेलते थे। कभी देर तक पाने में दुबकी मार कर बैठ जाना। पोखर के उस गंदले पानी की दुबकी में मिली शान्ति न तो कभी सुसज्जित स्नानघर में मिली न ही किसी स्विमिंग पूल में । वहीं से गीले गमछे तौलिये को लपेट, नंग-धड़ंग, रास्ते में पड़ने वाले पुराने शिव मन्दिर की ऊँची घंटी को उछलकर बजाते हुए घर पहुंचना।नाश्ता कहाँ करना है , ये निर्भर था इस बात पर की कहाँ पहले बन गया। कभी चावल के प;इसे आते की, कभी मकई के आटे की और कभी मडुवे की काली मोटी मोटी रोटियाँ नमक तेल और हरी मिर्च का नाश्ता करके मिलने वाली ऊर्जा और तृप्ति उसके बाद कभी नहीं मिली। दिन में सभी घरों के छोटे-छोटे काम हम यूँ मिलकर निबटाते थे जैसे हम सब उसके शेयर धारक हों। फ़िर खाने का क्रम और वरीयता भी वैसी ही थी। दाल-चावल , हरी साग-सब्जी और चटनी से युक्त सादा भोजन काश की कहीं दोबारा मिल पाटा। दोपहर लूडो खेलते या गप्पें हांकते और शाम को चौक चौराहे पर टहलने जाते हुए बीत जाता था। उसके बाद डिबिया-लालटेन की पीली रोशनी में पढ़ाई। एक यही वक्त होता अता जब शायद हम गंभीर होते थे थोड़ा सा।मेरे मष्तिष्क में सबकुछ चलचित्र की भाँती घूम रहा था। सोचता हूँ, की काश वे दिन कभी लौट पाते। शहर की मशीनी जिंदगी में तो उन दिनोंमुलाक़ात तो दूर बात भी महीनों बाद हो पाती है। वो दिन कहाँ से वापस लाऊं। वो कोयल की कूक, तोतों के झुंड, रंग-बिरंगेई तितलिया, जामुन के ऊँचे पेड़ों पर चढ़ कर जामुन खाना, गाँव के ढेरों त्यौहार और उनके विशेष व्यंजन लाइ-चुर्लाई , तिलबा, पुदुकिया, टिकिया चुरा दही मैं टकटकी लगाये तारों में सब कुछ ढूंढ रहा था। उस रात नींद बहुत अच्छे आयी

11 टिप्‍पणियां:

  1. यादों में सागर में डुबकी लगा तरोताजा हो लिए...............अच्छा लगा आलेख।

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  2. यादों की दुनिया तो यूँ ही होती है. बहुत बेहतरीन!!

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  3. यादों के आकाश मे अच्छी उड़ान भरी है।....बढिया आलेख।

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  4. बीत गए वो दिन
    वो रातें,
    छतों पे सोना
    नींद आने तक
    तारे गिनना
    असंख्य आकृतियाँ
    मच्छरों का नाम नहीं
    किसी तरह का धुआँ नहीं
    सुबह पक्षियों की चहचहाहट से उठना
    दूर जंगल में शौच
    पानी भरे गड्ढों में
    कमलिनी और
    मैदान के बीच खिलते
    श्वेत शंखपुष्पी के फूल
    बबूल के तनों ने से
    निकल कर सूखता
    पारदर्शी गोंद
    फिर नदी के बहते
    निर्मल जल में तैरना
    सब कुछ स्वप्न सा है
    केवल सपना भर

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  5. पढ़ा आपको ये लगा कब जाऊँगा गाँव।
    पैदल ही चलना पड़े नहीं थकेंगे पाँव।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
    कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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  6. aap sabkaa bahut bahut aabhaar, dinesh jee aapne to ek kaivtaa rach daalee, kya kahun, sneh banaye rakhein.

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  7. बहुत बढिया!! इसी तरह से लिखते रहिए !

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  8. rula diya ajay jiaapane.... ab to ganv jana sapne sa ho gaya hai.. sal me 3 bar 1 ya 2 din ke liye b badi mushkil se jana ho pata hai..

    lekin main aaj bhi in 2 dino me wahi sab karne ki koshish karta hu jo bachpan me kiya karta tha.. par ho nahi pata..


    laptop ki hardik badhaiyan...

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टोकरी में जो भी होता है...उसे उडेलता रहता हूँ..मगर उसे यहाँ उडेलने के बाद उम्मीद रहती है कि....आपकी अनमोल टिप्पणियों से उसे भर ही लूँगा...मेरी उम्मीद ठीक है न.....

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