प्रचार खिडकी

शनिवार, 8 मई 2010

ये हैं.... दिलशाद गार्डन दिल्ली से..... अजय कुमार झा



जी हां कुछ ऐसे ही अंदाज़ में शायद एक दो साल पहले तक विश्व की बहुत सी हिंदी रेडियो प्रसारण सेवा में मुझे और मुझे जानने वाले सभी परिचितों को मेरा नाम सुनने की आदत सी हो गई थी । बीबीसी रेडियो हिंदी सेवा , वायस औफ़ अमेरिका हिंदी सेवा ( जो अब बंद हो चुकी है , रेडियो पर ),रेडियो डोईचेवैले ( रेडियो जर्मनी हिंदी सेवा और एनएचके यानि रेडियो जापान हिंदी सेवा , और भी जाने कौन कौन सी हिंदी सेवाओं । शायद ये 1989 की बात थी जब मैंने पहली बार बीबीसी हिंदी सेवा को सुना था और इसके बाद बहुत से कारण थे जो मुझे ये लत लगती गई । उस समय मैं विदार्थी जीवन में था , इन प्रसारणों को लगातार सुनने का एक बडा फ़ायदा ये हुआ कि सभी सामयिक विषयों पर मेरी जानकारी अपने सभी मित्रों से अधिक रहती थी । ग्रामीण क्षेत्र होने के कारण रेडियो ही एकमात्र साधन था , मनोरंजन का भी और ज्ञान का भी ।

उस समय मेरी इस आदत से सभी बांकी लोग खासे परेशान रहते थे यहां तक कि मैं कहीं बाहर भी जाता था तो वहां रेडियो साथ होता था और फ़िर ग्रामीण इलाके में पहले तो पहले अब भी रेडियो आराम से और बडे शौक से सुनते हैं सभी इसलिए आसानी से उपलब्ध हो जाता है । पहले सुना करता था फ़िर धीरे धीरे उन पर प्रतिक्रिया भी देने लगा । और आदत ऐसी हो गई कि उस समय कोई ऐसी विशेष प्रस्तुति नहीं होती थी जिस पर मेरी सक्रिय प्रतिक्रिया न पहुंचे । मेरे पत्रों ने मुझे इन तमाम संस्थानों में एक पहचान दिला दी । न सिर्फ़ इतना बल्कि , इनमें आयोजित होने वाले तमाम प्रतियोगिताओं में भागीदारी और ईनाम मिलना , उपहार , कैलेंडर, और ढेर सारी पाठ्य सामग्रियां मुझे मिलीं , इनके अलावा सभी के पत्र भी । मैं भी प्रतिक्रिया के साथ साथ बधाई कार्ड और संदेश आदि भेजने लगा ।

समय के साथ ही सब बदला , दिल्ली पहुंचने के बाद इन प्रसारणों को सुनने में बहुत कठिनाई होती थी मगर इसके बावजूद सिलसिला नहीं थमा । यहां के स्थानीय डाकघर में थोक के भाव पोस्टकार्ड लेने के कारण उन्होंने मेरा नाम ही "पोस्टकार्ड वाले भाई साहब" रख दिया ।दिल्ली आने का एक फ़ायदा ये हुआ कि जिन पत्रकारों , प्रसारकों को सुना करता था , उनसे रूबरू भी हुआ , अनेकों बार मुझे स्थानीय केंद्रों में बुला कर रिकार्डिंग करवाई गई श्रोता के रूप में ।रेडियो खराब हुआ बीच में तो सबसे ज्यादा मुश्किल हुई रेडियो ढूंढने में , यहां दिल्ली में सारे के सारे एफ़ एम रेडियो ही उपलब्ध थे , खैर जैसे तैसे ढूंढ ही लिया गया । मगर पिछले कुछ समय में बहुत से कारणों से , और कुछ अपनी उदासीनता के कारण भी इनमें अनियमित हो गया और नाता टूट सा गया । मगर फ़िर से अभी हाल ही में पुराने मित्र साथियों ने याद दिलाया कि आप तो खो गए हैं शायद इस दुनिया से । घर में अब नेट उपलब्ध है सो दोबारा शुरू हो गया , और बहुत जल्द ही उसी आदत और हालत में पहुंच जाऊंगा ।

अभी हाल ही में रेडियो जापान हिंदी सेवा द्वारा उनके एक सामयिक कार्यक्रम "दोच्चि" (जिसमें किसी भी दिए गए विषय पर दो चार मिनट में अपने विचार रखने होते हैं )के लिए मुझे रिकार्ड किया गया इसी वृहस्पतिवार को प्रसारित किया गया ।जिसे आप नीचे सुन सकते हैं । इन सेवाओं से जुडने का एक अपना ही आनंद है । तो आप भी जुडें और






20 टिप्‍पणियां:

  1. दंतेवाड़ा में हुए नक्सली हमले में देश के 76 फौजी मारे गए । ये सभी एक एन्टी माइन वाहन में बैठकर नक्सलियों के सफ़ाए के लिए जंगल की तरफ़ जा रहे थे । इनके वाहन को नक्सलियों ने ‘माइन’ से ही उड़ा दिया। इतनी मौतों के बाद ‘विशेषज्ञों’ ने बताया कि इन फ़ौजियों को इस तरह के जंगलो में ऐसे छापामारों से लड़ने के लिए प्रशिक्षित ही नहीं किया गया था ।
    फ़ौजियो की लाशें उनके घरों को आने का सिलसिला शुरू हुआ। उनकी विधवाओं और उनके रिश्तेदारों को दहाड़े मार कर रोते हुए न्यूज़ चैनल्स और अखबारों ने दिखाया और यही मीडिया इसी दौरान यह भी दिखा रहा था कि देश का युवा वर्ग आई.पी.एल. क्रिकेट मैच देखने में मगन है और चौके - छक्कों पर चीयर लीडर्स मस्त नाच दिखा रही हैं। कुछ ही समय बाद पता चला कि नेता व्यापारी और सटोरिये भी चांदी-सोना काट रहे थे और नाच रहे थे। सत्ता पक्ष और विपक्ष के नेता इन्हीं लोगों से चुनाव में होने वाले खर्च में ‘सहयोग’ लेते है और बदले में देश की जनता को इन्हें सौंप देते हैं।
    वन्दे मातरम् गाने वाले ये ‘राष्ट्रवादी व्यापारी’ (?) आटा, दाल, चीनी, और दूध जैसी रोज़मर्रा की चीज़ों की जमाख़ोरी और कालाबाज़ारी करके नेताओं को अपने द्वारा दिये गए चन्दे से सौ गुना ज़्यादा वसूल करते हैं। नेता लोग कहते हैं कि अभी मंहगाई और बढ़ेगी। क्योंकि वे जानते हैं कि उन्होंने मंहगाई बढ़ाने वालों का नमक खाया है और हमारे देश का आदमी ‘नमक हराम’ नहीं होता।
    ग़रीब किसान महाजनों से सूद पर रकम लेते हैं और बदले में अपनी इज़्ज़त-आबरू के साथ अपनी जान भी दे देते हैं। अब तक देश के लगभग 2 लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं जोकि पाक समर्थित आतंकवाद में मरने वालों की संख्या से कई गुना ज़्यादा हैं।
    http://vedquran.blogspot.com/2010/05/unbeatable-india.html

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  2. वाह ! बहुत अच्छा लगा आपका रेडियो प्रेम जानकर. मैंने अपना पहला एक लोकल रेडियो सैट 50 रूपये में ख़रीदा था. मुझे छुटपन से ही संगीत सुनते हुए सोने की आदत रही है जो आज भी क़ायम है. रेडियो एक नशा है.

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  3. सही सलाह,
    छुट्टियां क्षेत्रवार होने लगें,
    रोटेशन में कर्मचारी जाने लगें
    काम के घंटे बच जाएंगे।
    तरक्की होगी

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  4. अजय जी आपका बलाग खोलने में बहुत दिक्कत होती है कृपया ध्यान दें

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  5. ये भी अच्छा शौक है झा सहाब, शुन्दर रहा, बधाई!

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  6. बहुत सुंदर लगा, आप का संदेश भी सुना,शोक अच्छा है लेकिन इस के लिये बहुत समय ओर बहुत पैसा चाहिये

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  7. HTF जी,

    ऐसा शायद बीबीसी के ताजे ताजे लगाए विजेट के कारण हो रहा है मैं देखता हूं कि क्या किया जा सकता है । साथ और स्नेह बनाए रखें

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  8. अरे नहीं नहीं राज भाई बिल्कुल भी नहीं , रेडियो के लिए आखिर कितना पैसा चाहिए होता है , नेट पर तो आप अपना काम करते हुए भी मजे में इसे सुन सकते हैं । और पत्र भी मेल से भेज सकते हैं आराम से

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  9. भईया जी मुझे तो लगता है कि आपके लिए समय कम पड़ जाता होगा , भईया रोज दो चार पोस्ट भी ठेल देते हो , नौकरी भी करते हो साथ ही रेडियो कार्यक्रम भी सुनते हैं बहुत खूब ।

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  10. अजय जी आप भी DX-RS थे यह जानकर ख़ुशी हुई / ये एक ऐसा लत आज भी है ,जिससे सार्थकता, सच बोलने और निडरता बढती थी / मैं भी कभी DX-RS था और REDIO PARAHA (CSSR ) के मोनिटर क्लब का सदस्य भी था / अच्छा लगा आपके इस पोस्ट को पढ़कर अपनी भी यादें भी ताजा हो गयी /

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  11. कई यादें ताज़ा हुईं इस पोस्ट से

    और यह DXing !!!

    बहुत दिनों बाद यह शब्द पढ़ा ब्लॉगिंग में
    मेरी यह पोस्ट्स देखी जा सकती हैं

    http://bspabla.blogspot.com/2008/11/ham.html

    http://bspabla.blogspot.com/2009/01/ham.html

    http://bspabla.blogspot.com/2009/07/ham.html

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  12. किसी वक्त मैं भी नियमित तौर पर बीबीसी की हिंदी सेवा के प्रसारण बिना नागा सुना करता था...लेकिन ये वो दौर था जब देश में सिर्फ दूरदर्शन और आकाशवाणी ही समाचार सुनने के अकेले ज़रिया थे...लेकिन बाद में देश में ही प्राइवेट न्यूज़ चैनल आने के बाद ये सिलसिला कम हो गया...अब तो खैर नेट पर बीबीसी प्रसारण किसी भी वक्त सुने जा सकते हैं, साथ ही बीबीसी हिंदी वेबसाइट पर समाचार विस्तार से पढ़े भी जा सकते हैं...अब तो समाचारों तक पहुंच आसान हो गई है...हां किसी वक्त ये ज़रूर था कि बीबीसी पर किसी समाचार को सुनने के बाद ही उस पर विश्वास होता था...

    अजय भाई, रेडियो एनाउंसर बनने के बारे में आपने कभी सोचा है क्या...ट्राई कीजिए...

    जय हिंद...

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  13. रेडियो पर आवाज सुन कर आनंद आ गया। यदि अभ्यास करें तो रेडियो के लिए और अच्छे वक्ता हो सकते हैं।

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  14. क्या खुशदीप भाई सारी पोल खुलवा कर ही दम मानोगे आप लगता है । मेरा चयन पटना रेडियो में बतौर समाचार वाचक हुआ था , और स्वर परीक्षण आदि भी हो गया , मगर अंतिम रूप से नियुक्ति किसी और की हुई थी , पद था एक , और प्रत्याशी थे , ग्यारह सौ । ओह क्या याद दिला दिया आपने

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  15. एक टिप्पणी ई मेल से .....

    एक विचार म में आया सभी माताओं को मात् दिवस के फूल मिले कोई मिलने आये .पर रद्दी की टोकरी का तो रोज ही मात् दिवस है कितनी प्रसन्ता से रद्द रचनाये,पत्र आदि अपनी झोली बड़ी कर प्रसन्न होती हैं फिर भी रद्दी की टोकरी को कैसे मात् दिवस आ कार्ड कहाँ भेजूं
    रद्दी की टोकरी मात् दिवस की शुभ मंगल कामनाएं
    गुड्डो दादी
    चिकागो से

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  16. अच्छा लगा आपको सुनना । रेडियो की नौकरी में भी लोग रोज़ वही-वही पढ़ते-कहते बोर हो जाते हैं । दूसरों का काम सभी को आकर्षक लगता है। रचनात्मकता को सीमा में नहीं बांधा जा सकता आप ब्लॉग पर जो कर रहे हैं वह कम महत्वपूर्ण नहीं है । बधाई । आपने अनवर जमाल साहब का क्या बिगाड़ा है यह समझ में नहीं आया ।

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  17. वाह बहुत खूब...
    हम तो रेडियो के कीड़े हैं...
    रेडियो में बोलना और सुनना हमारी धुन है..
    बहुत अच्छा लगा...

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  18. jha ji aone blog ka templete change kijiye iss par article padne me nahi aate hain

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टोकरी में जो भी होता है...उसे उडेलता रहता हूँ..मगर उसे यहाँ उडेलने के बाद उम्मीद रहती है कि....आपकी अनमोल टिप्पणियों से उसे भर ही लूँगा...मेरी उम्मीद ठीक है न.....

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