प्रचार खिडकी

रविवार, 26 जुलाई 2009

जाने क्यूँ , हर बार वो, इक नया पता देते हैं......





बस्तियां खाली करवाने को,वो,
अक्सर उनमें आग लगा देते हैं.....

उतनी तो दुश्मनी नहीं कि ,कत्ल कर दें मेरा ,
इसलिए वो रोज़ , जहर, बस जरा जरा देते हैं ......

मैंने कब कहा कि, गुनाह को उकसाया उसने ,
वे तो बस मेरे पापों को, थोडी सी हवा देते हैं....

वो जब करते हैं गुजारिश , घर अपने आने की,
जाने क्यूँ, हर बार, इक नया ही पता देते हैं......

मैं ठान लेता हूँ कई बार, अबके नहीं मानूंगा,
नयी अदा से वो, हर बार लुभा लेते हैं.......

जख्मों से अब दर्द नहीं होता, कोई टीस भी नहीं,
पर जाने क्यूँ जख्मों के निशाँ, रुला देते हैं......

जब भी जाता हूँ गाँव अपने, ऐसी होती है खातिर मेरी,
अपने ही घर में , मुझे, मेहमान बना देते हैं......

सिलसिला टूटता नहीं उनपर मेरे विश्वास का,
पुरानी को छोड़ , रोज़ इक नयी कहानी सुना देते हैं....

शनिवार, 4 जुलाई 2009

तो क्या टिप्न्नियाँ भी बंद कर दूं...?




जब ब्लॉग्गिंग शुरू की थी ..तभी से एक प्रबल इच्छा मन में उठती थी ....खूब सारे ब्लोग्स को पढने की..और खूब जम कर टिपियाने की..मगर कैफे के निर्धारित एक घंटे के समय में अक्सर एक पोस्ट नहीं लिखी जा पाती थी ..तो पढता क्या और टिपियाता क्या..इसके बाद ..आईडिया निकला ..एक दिन लिखने का ..और दूसरे दिन सिर्फ पढने और टीपने का...मगर फिर भी मन को तसल्ली नहीं होती थी..मन में हमेशा एक आस होती थी की चलो किसी न किसी दिन तो अपना भी कंप्यूटर होगा ..और तब हम भी नजर आयेंगे तिप्प्न्निकारों की सूची में...दरअसल किसी भी नए ब्लॉगर की तरह मैं भी उड़नतश्तरी जी से बेहद प्रभावित हुआ...

तिप्पन्नीकारी में दूसरी आदत जो आयी वो थी किसी भी पोस्ट को यदि पढ़ लिया तो बिना टिपियाते वहाँ से नहीं निकलना..वर्ड वेरिफिकेशन हो..या टिप्प्न्नी बक्सा देर से खुलता है..मगर नियम बन गया की जब घर में घुसे हैं तो खातिरदारी करवाके ही निकलेंगे...इसके बाद समय आया नए ब्लोगों में घूम घूम कर टिप्प्न्नी करने का...वहाँ कई बार लगभग न के बराबर लिखी गयी पोस्ट पर भी टिप्प्न्नी की..इसी दौर में ..बहुत से नए मित्रों ..ने अपनी प्रारम्भिक कठिनाइयाँ ..भी बाँटीं...जितना आता था बताया ..और खुद भी पूछते रहे ..सभी अग्रगामियों से ...

तिप्प्न्नियों में ये आदत भी स्वाभाविक रूप से आ गयी...की सीधे सीधे क्या लिख दें ....सपाट दीवार की तरह..तो जिसने शेर लिखे.....हमने भी एक बकरी बाँध दी उसके पीछे......जिसकी कविता पढ़ी .....उसके पीछे अपनी सविता (हमारी फटी चिटी पंक्तियाँ ) ..छोड़ दी..और गंभीर विषय पर ..गंभीर हो कर लिखा....हरयान्वी को हरयान्वी में...और भोजपुरिया को भोजपुरी में.....यदि विचारों से असहमति है ...तो खुल कर कहा ..क्यूँ ..किस बात पर ..सब कुछ ....और भाषा की मर्यादा का हमेशा ध्यान रखा....
मगर यही से शुरुआत हुई, लोगों ने तिप्पन्नियाँ ..उडानी शुरू कर दी ..इसके बाद धमकाने का आज कल प्रचलित अस्त्र का प्रयोग किया गया ...और अब तो ईमेल फीमेल ..सबसे प्यारे प्यारे सन्देश आ रहे हैं...भैया क्या करूँ ...बताओ क्या अब टिप्प्न्नी करना ..भी अपराध हो गया क्या......? मगर भैया चाहे जो हो ......यदि अपराध है तो यही सही...जिन्हें ऐसा लगे की मुझे उनकी पोस्ट पर टिप्प्न्नी नहीं करनी चाहिए ..बता दें.....हम आदेश मान लेंगे....क्यूंकि बहुत हैं प्यार बांटने-प्यार देने वाले.......

गुरुवार, 2 जुलाई 2009

लिब्रहान आयोग : सत्रह साल ज्यादा तो नहीं हैं....



तो आखिरकार ..लिब्रहान आयोग ने अपनी रिपोर्ट दे ही दी...वो तो देनी ही थी कभी न कभी...और इससे अनुकूल समय और हो भी नहीं सकता था....मुझे ये समझ में नहीं आ रहा कि ..राजनितिक दल तो खैर आदतन ..जो करती हैं उससे अलग कुछ और करेंगे..इसकी न तो किसी को अपेक्षा है ना ही शायद जरूरत. मगर मुझे हैरानी तो इस बार पर हो रही है की आखिर आम लोग क्यों अपनी तीखी प्रतिक्रया दे रहे हैं...क्या इसलिए की आयोग के रिपोर्ट देने में इतना लंबा समय लगा...क्या इसलिए की उस पर इतना सारा पैसा खर्च किया गया..क्या इसलिए की उसे अब... जानबूझकर अब पेश किया गया है...मेरे विचार से तो सभी प्रश् बेमानी हैं.

दरअसल भारत में आयोगों के गठन , उनकी रिपोर्टों, उनमें अनुशंषित तथ्यों, और सबसे बड़ी राजनितिक दलों, सरकार द्वारा उसके प्रति संजीदगी या उपेक्षा का जो इतिहास रहा है , उसे देख कर तो स्पष्टतः यही लगता है कि सिर्फ कुछ आयोगों को छोड़ दिया जाए तो ..जहां इन आयोगों का गठन ..भी राजनीति प्रेरित होता है..और रिपोर्ट भी ..परिणामतः उसका प्रभाव भी..चाहे वो गोधरा काण्ड के बाद गठित हुए आयोग हों...या चौरासी के सिक्ख दंगों के बाद गठित आयोग ..सबका एक ही हश्र हुआ है..कुछ दिनों तक आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति..भविष्य के लिए सरकार के कई वाडे..और कुछ दिनों बार सबको भुला बैठना...और यदि मामला/विषय राजनितिक हो तो ..फिर तो इसकी पूरी कार्यवाही और रिपोर्ट ..दोनों ही महज एक खानापूर्ती से बन कर रह जाते हैं...आखिर इन आयोगों का गठन..और फिर उनका असीमित समय तक स्थगन पर स्थगन होता ही क्यूँ है..मुझे इस विषय में किसी संवैधानिक उपबंध के बारे में ज्ञान नहीं है..मगर एक आम आदमी की तरह सोचूं तो यही लगता है ..किसी भी आयोग के गठन के समय ही इस बात का स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए कि ...इसकी अधिकतम जांच सीमा..इतनी समय तक होगी....उसके बाद उसे औचित्यहीन मान लेना ही श्रेयस्कर ...यदि इस आयोग की रिपोर्ट आज से दस साल पहले भी आ जाती तो क्या हो जाता..क्या जिन लोगों को दोषी बताया जाता ..वे इस बात को मान लेते और क्या ..सरकार इतनी हिम्मत दिखा पाती कि उन्हें सजा दे पाती..हाँ कुछ राजनितिक समीकरण...कुर्छ सांठ-गाँठ ..शायद अलग होते.....

किन्तु इस आयोग और अन्य आयोगों के विलंब से ..या उनके लगभग पचास बार स्थगन ..करने की प्रवृत्ति उन्हें अपने आप तो नहीं लगी है ..संविधान में ..आरक्षण की व्यवस्ता सिर्फ दस वर्षों के लिए की गयी थी...आज पता नहीं कितनी बार उसे स्थगन दे दे कर आगे बढाया जा चुका है..और निकट भविष्य में कोई सरकार इसे समाप्त कर पायेगी ऐसा नहीं लगता......संविधान में ये भी व्यवस्था रखी गयी थी..कि सरकार जल्दी ही राजकाज की भाषा को पूर्णतया हिंदी कर लेगी..और तब तक अंगरेजी का प्रयोग किया जा सकता है..ये भी शुरू के दस वर्षों के लिए था..आज हालत आपके सामने हैं..और ऐसे कितने ही कानून..कितनी ही समस्याएं हैं...जिनके लिए बार बार समय सीमा तय होने के बावजूद ..हर बार उन्हें समय मिल जाता है..और तो और एक सड़क निर्माण से पहले भी ..हम ये नहीं पूछ सकते ..कि इसकी समय सीमा ..आखिर कुछ तो न्यूनतम हो..जिससे पहले उसकी खुदाई न हो ...तो फिर बेचारे इस आयोग पर ही सारा गुस्सा क्यूँ..आखिर बालिग़ होने (अट्ठारह वर्ष ) से पहले ही आ तो गया सामने......
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