अक्सर उनमें आग लगा देते हैं.....
उतनी तो दुश्मनी नहीं कि ,कत्ल कर दें मेरा ,
इसलिए वो रोज़ , जहर, बस जरा जरा देते हैं ......
मैंने कब कहा कि, गुनाह को उकसाया उसने ,
वे तो बस मेरे पापों को, थोडी सी हवा देते हैं....
वो जब करते हैं गुजारिश , घर अपने आने की,
जाने क्यूँ, हर बार, इक नया ही पता देते हैं......
मैं ठान लेता हूँ कई बार, अबके नहीं मानूंगा,
नयी अदा से वो, हर बार लुभा लेते हैं.......
जख्मों से अब दर्द नहीं होता, कोई टीस भी नहीं,
पर जाने क्यूँ जख्मों के निशाँ, रुला देते हैं......
जब भी जाता हूँ गाँव अपने, ऐसी होती है खातिर मेरी,
अपने ही घर में , मुझे, मेहमान बना देते हैं......
सिलसिला टूटता नहीं उनपर मेरे विश्वास का,
पुरानी को छोड़ , रोज़ इक नयी कहानी सुना देते हैं....