है मौसम का सुरूर ,याकि तेरी नज़रों का कसूर,हर वक्त,इश्कियाने को जी चाहता है .............या मैं हो जाऊं फ़ना तुझमें ,या तू ही कुर्बान हो जा,कयामत तक इसे ही,आजमाने को जी चाहता है .........नहीं मुझे परवाह,अब दुनिया ए दौर की,तेरी नज़रों से,खुद को सजाने को जी चाहता है........मुझे फ़िक्र है दस्तूरों ,और, बंदिशों की, मगर ,करूं क्या कि जी ,बस यही ,और यही चाहता है ........मैंने कब कहा कि ,ये कुफ़्र नहीं है , होगा शायद,ये तो दिल ही जाने ,कब गलत, कब सही चाहता है ........इस कमबख्त दिल की,फ़ितरत ही कुछ ऐसी है,जो मिलना हो मुश्किलअक्सर , ये वही चाहता है ........तैयार है हर दिल यहां ,कोई उडने को आसमान,तो कोई भाग चलने को,इक ज़मीं चाहता है ..............हा हा हा ...........ये दिल बेइमान ....ये दिल बेलगाम...........ये दिल .......छोडो यार .........हा हा हा ..
प्रचार खिडकी
शनिवार, 21 अगस्त 2010
हर वक्त ! इश्कियाने को जी चाहता है......अजय कुमार झा
एक आम आदमी ..........जिसकी कोशिश है कि ...इंसान बना जाए
रविवार, 1 अगस्त 2010
अपने ही घर में मुझे सब , मेहमान बना देते हैं............अजय कुमार झा
बस्तियां खाली करवाने को ,वो अक्सर उनमें ,आग लगा देते हैं ॥उतनी तो दुश्मनी नहीं कि ,कत्ल कर दें मेरा , इसलिए ,रोज़ , ज़हर ,बस ,ज़रा ज़रा देते हैं ॥मैंने कब कहा कि , गुनाह को ,उकसाया उन्होंने , वे तो बस ,मेरे पापों को , थोडी सी,हवा देते हैं ॥वो जब करते हैं गुजारिश ,अपने घर आने का,हर बार जाने क्यों ,इक नया पता देते हैं ॥मैं ठान लेता हूं , कई बार ,अबकि नहीं मानूंगा ,नई अदा से वो , मुझको,हर बार लुभा लेते हैं ॥जख्मों से अब दर्द नहीं होता ,कोई टीस भी नहीं ,पर जाने क्यों जखमों के,निशान रुला देते हैं ॥जब भी जाता हूं गांव अपने ,ऐसी होती है , खातिर मेरी ,अपने ही घर में मुझे सब ,मेहमान बना देते हैं ॥सिलसिला टूटता नहीं ,उनपर ,मेरे विश्वास का , पुरानी को छोड,रोज़ एक नई ,कहानी सुना देते हैं ॥
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एक आम आदमी ..........जिसकी कोशिश है कि ...इंसान बना जाए
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