जडों से कटकर , जिंदगी ,कुछ ऐसी उलझी शाखों में ,
खूब हंसे उजालों में , और जी भर के रोए रातों में ...
उदासियों को लपेट के , इन पनियाली आंखों से ,
अक्सर कई शामें गुज़ारा करते हैं .....
हमें यकीं है उनकी मौत का , फ़िर भी,
वहीं जाकर , उन्हें रोज़ पुकारा करते हैं ....
आज उन दोस्तों से इक बात तो कह दूं ,
जो उठते हैं जब छतों पर अपने,तो सामने हरा खेत दिखता है
तो देख लो और जुरा लो ,
अपनी आंखें मन भर ,
एक बार निकले तो फ़िर ,
मरूस्थल का बस रेत दिखता है ...
पुरवाइयों को झोंका , अब छत पे मेरी नहीं आता ,
बस लोगों को गुमा है , मैं हाकिम बडा हूं ........
ये आंसू , मेरे मुखौटे का रकीब क्यों है ,
बस ज़रा दूर होतीं ,आखें ,दिल के करीब क्यों है
अक्सर इन हालातों में खुद ही खुद को सताता हूं मैं ,
एक हाथों से लिखता हूं , दूसरे से मिटाता हूं मैं ..
थाम के सिरा यादों का अपनी, दीवारों से लिपट के रोया वो ,
किसी शाम का किस्सा यूं गुजरा , पहले रोया , फ़िर सोया वो
बहुत लंबी फ़ेहरिस्त है ,
जिंदगी के इम्तहानों की ,
आदमी जीता है बहुत है मगर ,
जिंदगी छोटी है इंसानों की ,
इस पत्थर के जंगलों में
यूं तो बस्तियां ही बस्तियां हैं ,
जहां प्यार मिलता था ,
ताले जडे हैं दरवाज़ों पे ,
खिडकियां बंद है उन मकानों की ..
कतरा कतरा ,ज़िंदगी ,पिघलती रही,
बिना रुके , बिना थके ,बस यूं ही चलती रही ,
धुंआं देखा तो लोगों ने अंदाज़ा लगाया ,
कभी वो जलता रहा , कभी जिंदगी जलती रही