प्रचार खिडकी

बुधवार, 31 मार्च 2010

मां ............

मेरी मां

माँ , तेरी गोद मुझे,
मेरे अनमोल,
होने का,
एहसास कराती है॥

माँ, तेरी हिम्मत,
मुझको,
जग जीतने का,
विश्वास दिलाती है॥

माँ, तेरी सीख,
मुझे ,
आदमी से,
इंसान बनाती है॥

माँ, तेरी डाँट,
मुझे, नित नयी,
राह दिखाती है॥

माँ, तेरी सूरत,
मुझे मेरी,
पहचान बताती है॥

माँ, तेरी पूजा,
मेरा, हर,
पाप मिटाती है॥

माँ तेरी लोरी,
अब भी, मीठी ,
नींद सुलाती है॥

माँ , तेरी याद,
मुझे,
बहुत रुलाती है॥
 

ये पंक्तियां तब लिखी थी जब मां मेरे पास थी , मेरे साथ थी .........जाने आज क्यों बार बार मां की बहुत याद आई , और मैं बाहर निकल कर तारों में उन्हें ढूंढता रहा ..........

सोमवार, 29 मार्च 2010

पत्र पत्रिकाओं के लिए ,ब्लोग पोस्टों पर आधारित मेरा साप्ताहिक स्तंभ "ब्लोग बातें" शुरू



पिछले काफ़ी समय से विचार करते करते आखिरकार आज जाकर हिंदी ब्लोग की पोस्टों पर आधारित और विभिन्न समाचार पत्रों के लिए मेरा नया कालम " ब्लोग बातें " शुरू हो ही गया । ये विचार तो काफ़ी पहले से मन में आ रहा था मगर हर बार कुछ अलग अलग कारणों से और कुछ अपने आलस्य के कारण योजना टलती जा रही थी । मगर अब जाकर ये सुनिश्चित हो ही गया है कि सोमवार के सोमवार मेरे द्वारा एक स्तंभ जो कि सप्ताह भर में किसी एक विषय या किसी एक खास मुद्दे के इर्दगिर्द लिखी गई पोस्टों का संकलन और विश्च्लेषण करता हुआ होगा । और बहुत जल्दी ही आपको उसकी छपी हुई प्रति ब्लोग औन प्रिंट पर देखने को मिलेगी । मेरा प्रयास ये होगा कि उन सभी ब्लोग्स को इसकी सूचना भी प्रेषित करूं ।

      यहां एक दुविधा मन में जरूर उठ रही है । जैसाकि पिछले दिनों इस बात पर कहीं कहीं पर आपत्ति उठती देखी कि समाचार पत्र बिना इजाजत के ब्लोग पोस्ट्स से सामग्री उठा रहे हैं जो अनुचित है । तो इसके लिए मैं अभी ही स्पष्ट कर दूं कि मेरा कार्य कोशिश सिर्फ़ ये होगी कि अतंरजाल पर सप्ताह भर के दौरान , ब्लोग्गर्स ने क्या क्या लिखा , क्या क्या बहस हुई आदि आदि । इसमें न सिर्फ़ उन ब्लोग पोस्ट्स का जिक्र होगा बल्कि उनके ब्लोग्स का पता भी बाकायदा दिया जाएगा । मुझे लगता है कि हिंदी ब्लोग्स से आम पाठकों का परिचय कराने के लिए ये बहुत बढिया विचार होगा । एक बात और यदि आपको लगता है कि आपकी पोस्ट आम पाठकों की पहुंच में भी आनी चाहिए तो मुझे मेरे मेल पते पर बेझिझक  बताएं । उम्मीद है कि आपका साथ और स्नेह मुझे अपने इस नए प्रयास में भी मिलता रहेगा ।

शनिवार, 27 मार्च 2010

बुधवार, 24 मार्च 2010

यही दस्तूर है मकानों का








वो सर बुलंद रहा और खुद्पसंद रहा,
मैं सर झुकाए रहा और खुशामदों में रहा
मेरे अजीजों, यही दस्तूर है मकानों का,
बनाने वाला हमेशा बरामदों में रहा

कहीं  पढ थीं ये पंक्तियां ............याद रह गईं ॥

मंगलवार, 23 मार्च 2010

२३ मार्च को कुछ ख़ास है क्या ???? हैप्पी शहीद डे यार !

देश के तीन सपूत जिन्हें आज देश भुला बैठा है
पापा, आज २३ मार्च को कुछ ख़ास है क्या ?

हाँ बेटा, तुम्हें नहीं पता , आज शहीद दिवस है। आज ही के दिन तो हमारे आजादी के कुछ दीवाने हँसते हँसते अंग्रेजों के फांसी के फंदे को फूल की माला की तरह गले में लपेट कर झूल गए थे। तुम्हें नहीं पता ये।

लेकिन पापा यदि ये इतना ख़ास है तो फ़िर चारों तरफ़ इसकी बात होनी चाहिए थी न, जब वैलेंताईन डे आता है तो उसके कितने पहले से ही हर तरफ़ उसकी चर्चा और खबरें रहती हैं , तो मैं क्या ये मानू की वैलेंताईन डे इस शहीद दिवस से ज्यादा महत्वपूर्ण है। और उस वैलेंताईन डे को मनाने और विरोध करने वालों की भी कितनी बातें होने लगती हैं, अब तो हम बच्चों के भी पता है उसके बारे में।

अरे बेटा इस शहीद दिवस को जब कोई मनाने को ही तैयार नहीं है तो इस बेचारे दिवस का विरोध करने की बात कहाँ से होगी। अच्छा तुम ये बताओ तुम शहीद तो जानते हो न क्या होता है।

हाँ पापा वे लोग जो अब भी, (आज जब समाज में बहुत कम ही लोग ऐसे हैं तो अपने बारे में सोचने के अलावा भी कुछ सोचते और करते हैं ) अपने बारे में अपने बाल बच्चों और अपने परिवार के बारे में न सोच कर सिर्फ़ देश के बारे में सोचते हैं। न सिर्फ़ सोचते हैं बल्कि अपना तन मन, प्राण सब कुछ देश पर न्योछावर कर देते हैं। और इस देश के लोग कुछ दिनों बाद उनका नाम तक भूल जाते हैं। सरकार उनके नाम पर कभी पेट्रोल पम्प घोटाला तो कभी कोई और घोटाला करती रहती है। उन्हें ही शहीद कहा जाता है।

खैर , वो छोडिये पापा आप ये बताइए, की उन शहीदों को फांसी पर क्यूँ टांगा था और किसने टांगा था।
अरे बेटा उस वक्त अंग्रेजों का राज था, हमारे वे बांके लोग जो दीवानों की तरह देश को आजाद करवाने के लिए सर पर कफ़न बाँध कर घूम रहे थे उन्होंने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था। जब अंगरेजी हुकूमत उनसे बुरी तरह डर गयी तो उन्होंने उन क्रांतिकारियों को पकड़ कर फांसी दे दी.

बेटा आश्चर्य में डूब कर बोला, अच्छा पापा बताओ ये क्या बात हुई भला। मैं सोच रहा हूँ की यदि उस वक्त यही अभी वाली सरकार होती तो क्या उन्हें कोई फांसी दे सकता था , पर हाँ दे भी सकता था यदि उन्हें फांसी से बचाया जा सकता था तो उसकी एक ही सूरत थी की वे भी आतंकवादी होते, तब जरूर ही हमारी सरकार उन्हें कुछ नहीं कहती।


नहीं बेटे , यदि वे आज जीवित होते तो ख़ुद ही फांसी के फंदे में झूल गए होते । और इस तरह मैंने और मेरे बेटे ने शहीद दिवस मन लिया.

बुधवार, 17 मार्च 2010

व्रत आसान है रखना क्या ( एक लघु कथा ..या पता नहीं क्या )



"सुनो जी कल से नवरात्रि शुरू हो रही है , मुझे बहुत सी तैयारियां करनी हैं । आप तो जानते हैं कि मैं पिछले कई सालों से श्रद्धापूर्वक सारे व्रत रखती हूं। ये लो लिस्ट और बाजार से व्रत के लिए सारा सामान ले आओ

पांच किलो फ़ल ...अभी फ़िलहाल इतना ही बांकी बाद में आते रहेंगे .. 
दस किलो आलू...ओह व्रत में आलू न हों तो ....कैसे चल सकता था काम  
दो किलो देसी घी ...सुनो घी चैक करके लाना ..बढिया हो एकदम खालिस  
आलू चिप्स के पैकेट...चिप्स के पैकेटों का भी बहुत सहारा हो जाता है
           जूस के दो बडे डब्बे ...ब्रत में कमजोरी महसूस न हो इसके लिए तो जूस जरूरी है

देखो न और भी कुछ याद था ..खैर छोडो ..इसके साथ थोडी सी पूजा सामग्री भी ले आना । और हां कल से आपको ज्यादा हाथ बंटाना होगा ....जाओ जल्दी निकलो ...ओह ब्रत इतने आसान नहीं होते रखने ...."श्रीमती जी ने अपने श्रीमान जी से कहा ।

श्रीमान जी सोच रहे थे ": हां सच कहा है व्रत इतने आसान नहीं होते ...इतनी महंगाई में ...तो खाते पीते ही ठीक है ॥




मंगलवार, 16 मार्च 2010

एक प्याली चाय


एक प्याली चाय,
अक्सर मेरे,
भोर के सपनों को तोड़,
मेरी अर्धांगिनी,
के स्नेहिल यथार्थ की,
अनुभूति कराती है॥

एक प्याली चाय,
अक्सर,
बचाती है,
मेरा मान, जब,
असमय और अचानक,
आ जाता है,
घर कोई॥

एक प्याली चाय,
अक्सर,
बन जाती है,
बहाना,
हम कुछ ,
दोस्तों के,
मिल बैठ,
गप्पें हांकने का..

एक प्याली चाय,
अक्सर ,
देती है,
साथ मेरा,
रेलगाडी के,
बर्थ पर भी..

एक प्याली चाय,
अक्सर मुझे,
खींच ले जाती है,
राधे की,
छोटी दूकान पर,
जहाँ मिल जाता है,
एक अखबार भी पढने को॥

एक प्याली चाय,
कितना अलग अलग,
स्वाद देती है,
सर्दी में, गरमी में,
और रिमझिम ,
बरसात में भी॥

एक प्याली चाय,
को थामा हुआ,
है मैंने,या की,
उसने ही ,
थाम रखी है,
मेरी जिंदगी,
मैं अक्सर सोचता हूँ ......

अक्सर चाय पीते हुए ये पंक्तियां मेरे मन में कौंधती हैं , पहले भी शायद कही थी ......आज फ़िर चाय पी ...तो फ़िर कहने का मन किया ............और आपका ...??

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

सफ़ेद चेहरे ...एक कहानी या जाने हकीकत थी ......


कांति और नुपुर , बिल्कुल उस तरह से थी जैसे कि, दो बहने हों । उनकी ये दोस्ती कितनी पुरानी थी इस बात से ज्यादा ये बात जानने में मज़ा आ सकता है कि उनकी दोस्ती कैसे हुई। दरअसल ये उनके कोल्लेज के दिनों की बात थी, दोनों एक ही बस में चढ़ कर एक ही कालेज और एक ही क्लास में जाती थी, मगर उनमें शायद कभी भी ऐसी दोस्ती न होती यदि , उस दिन वो घटना ना हुई होती। जब वे अपना क्लास ख़त्म करके बस में चढी तो रोज की तरह बस ठसाठस भरी हुई थी। वे दोनों भी बिल्कुल आस पास खडी हो गईं थी। नुपुर जो कि हमेशा से बेहद संकोची और डरने वाली लडकी थी , उसे अचानक लगा कि किसी ने पीछे चिकोटी काटी है, वो हमेशा की तरह कस्मसाई और आगे बढ़ने की सोचने लगी। मगर आगे भी भीड़ थी, तभी अचानक इससे पहले कि वो कुछ और सोच या कर पाती, चटाक की एक तेज़ आवाज़ उसके कानो में गूंजी। उसने मुड़ कर देखा , साथ खड़ी लडकी ने बिल्कुल पास खड़े लड़के के कालर पकड़ कर उसे भला बुरा कह रही थी। इसके बाद का काम भीड़ ने कर दिया, न किसी ने कुछ पूछा और न कहा। नुपुर की कांति से यहीं से दोस्ती की शुरूआत हुई थी। जब उसे कांति से पूछा था कि क्या ये सब करते हुए उसे डर नहीं लगा, उसने बताया था कि वो एक बड़े घर की लडकी है, और उसका माहौल बहुत अलग है जिसमें डर वर की कोई गुंजाईश नहीं है। वो तो कार में अपनी जिद्द की वजह से नहीं आती है। इसके बाद तो दोनों जैसे एक ही घर में पैदा हुई दो बेटियाँ हों।


आज नुपुर बेहद उदास थी, ऐसी ही उदासी उसके चेहरे पर तब भी थी , जब वो नौकरी के लिए भटक रही थी। कांति ने लाख कहा था कि वो अपने पापा के कहने पर उसे किसी अच्छी जगह पर काम दिलवा सकती है, या चाह तो उसे अपने पापा के यहाँ ही कोई अच्छी नौकरी दिलवा सकती है, मगर नुपुर अब भी उन्हें पुराने खालों की लडकी थी इसलिए बड़ी विनम्रता से उसे टाल गयी.मगर फ़िर उसे जब एक जगह रीसेप्स्निष्ट की नौकरी मिल गयी थी तो वो कितना खुश थी, फ़िर एक हफ्ते बाद ही तो उसने बताया था कि सर ने उसे अपना सेक्रेटरी बनाने का को कहा है.मगर आज कुछ जरूर गड़बड़ थी। कांति उसका फक्क चेहरा देख कर ही समझ गयी थी। बहुत कुरेदने पर पता चला कि वही पुरानी बात उसके बॉस ने उससे बत्तमीजी करने की कोशिश की थी। बस कांति भड़क गयी, पहले तो उसने नुपुर को ही खूब भला बुरा कहा, फ़िर लाख न न करने के बाद भी उसे इस बात के लिए राजी कर लिया कि कल वो भी नुपुर के साथ जाकर उस बॉस की अक्ल ठिकाने लगा कर आयेगी।

अगले दिन नुपुर ने बहुत कोशिश की , कि उसकी तबियत ख़राब है , वो बात आगे नहीं बढाना चाहती , या वो और कहीं नौकरी कर लेगी। मगर कांति उसे सबक सिखाने पर आमादा थी। सो दोनों चल पड़े। तू, कुछ नहीं कहेगी, चुपचाप खड़े होकर तमाशा देखना, आज मैं उसका कैसा बैंड बजाती हूँ, कांति ने उसे कहा।

गाडी जहाँ रोकने के लिए नुपुर ने कहा, पहले तो कांति थोडा चौंकी, फ़िर कुछ सोच कर चुप हो गयी। इसके बाद दोनों उस बिल्डिंग में दाखिल हुए, अब कांति के चेहरे पर एक अजीब सा खुरदुरापन आ गया था मगर अन्दर ही अन्दर उसका दिल भी धाड़ धाड़ बज रहा था। नुपुर के साथ साथ वो भी सीधे बिना खटखटाए बॉस के कमरे में दाखिल हो गए। नुपुर को ना जाने कांति के साथ ने कहाँ से हिम्मत दे दी, ' देख नुपुर यही है वो, उसे सामने खड़े व्यक्ति की तरफ़ इशारा किया।

"पापा , आप ," कांति के मुंह से निकला।

सबके चेहरे सफ़ेद पड़ चुके थे, कारण अलग थे , मगर सफेदी एक जैसी थी......


मंगलवार, 9 मार्च 2010

आज महिलाओं को आरक्षण नहीं इंदिरा गांधी , किरन बेदी, और कल्पना चावला की जरूरत है




एक शताब्दी पहले महिला को सश्क्त करने के लिए अंतर राष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की परंपरा की शुरूआत शायद इस वजह से ही हुई होगी कि जब एक शताब्दी के बाद मुड के देखेंगे और पाएंगे कि महिलाओं की स्थिति कितनी बदली इन सौ सालों में तो वो संघर्ष का इतिहास गौरवमयी और उपलब्धिपूर्ण होगा । आज रुक कर यदि सरसरी तौर पर देखा जाए तो बदलाव तो यकीनन आया है और ये परिवर्तन दिख भी रहा है । इसे सकारात्मक व नकारात्मक तर्कों पर तौलने वालों को किनारे करके इतना तो सीधा सीधा माना जा सकता है कि महिलाओं ने परिवार ,समाज ,देश , और पूरे विश्व में बहुत सारी जद्दोज़हद के बाद अपना एक मुकाम तो हासिल किया ही है । और ये सफ़र अभी जारी है , कहें कि रफ़्तार भी अब पहले से ज्यादा तेज़ है । मगर जिन शाश्वत समस्याओं पर नज़रें बार बार आकर अटक जाती हैं उनमें से पहली है समाज की नारियों के प्रति नहीं बदलने वाली मानसिकता, महिलाओं पर होने वाला दैहिक और मानसिक अत्याचार ,उनके साथ अब भी किया जा रहा दोयम दर्ज़े का व्यवहार । और ऐसा सिर्फ़ अविकसित या पिछडे देश/समाज की कहानी नहीं है बल्कि विकसित देशों में भी यही हाल है ।

अमरीका जैसे सबसे विकसित देश में जहां अब तक एक भी महिला राष्ट्राध्यक्ष नहीं बन पाई है , तो वहीं भारत में तो अभी राजनीतिक जगत में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए आरक्षण की बैसाखी का सहारा लेना भी गंवारा नहीं है सबको । जाने कितनी ही बार महिलाओं के लिए तैंतीस प्रतिशत आरक्षण सुनिश्चित करने के लिए विधेयक को संसद के पटल पर रखा गया है और हर बार उसका हश्र कुछ ऐसा ही हुआ है जैसा कि इस बार हुआ है । कारण स्पष्ट है कि बांकी का बचा ६७ प्रतिशत उन तैंतीस प्रतिशत के प्रभाव और परिणाम से पहले से ही डरा हुआ सा लगता है । लेकिन क्या सचमुच ही आज महिलाओं को किसी आरक्षण की बैसाखी की जरूरत है आगे बढने के लिए , अपना अधिकार, अपना ओहदा, अपना अस्तित्व तलाशने के लिए । आज यदि भारत में महिलाओं की स्थिति को देखें तो कतई नहीं , बिल्कुल भी नहीं । जिस देश में दशकों पहले देश की कमान इंदिरा गांधी जैसी विश्वस्तरीय नेत्री ने संभाल रखी हो , (यहां ये उल्लेख करना शायद ठीक होगा कि आज जिस विधेयक को पारित करने के लिए सभी इतनी एडी चोटी का ज़ोर लगा रहे हैं यदि आज इंदिरा गांधी जीवित होतीं तो निश्चित ही इतना समय नहीं लगता ), जहां कानून, खेल, अभिनय, कला , समाज, राजनीति ...आदि हर क्षेत्र में नारी शक्ति का बोलबाला और धाक है ,ऐसे में उसे किसी भी बैसाखी की जरूरत नहीं है ।


आज यदि महिलाओं को किसी बात की जरूरत है तो वो सिर्फ़ इस बात की कि हर प्रांत, हर शहर, हर गांव,हर कस्बे, हर गली कूचे, हर परिवार ,में इंदिरा गांधी, लक्ष्मी बाई, किरन बेदी, कल्पना चावला, सायना मिर्ज़ा, नज्मा हेपतुल्लाह, लता मंगेशकर, शिवानी, और इन जैसी हजारों महिलाएं को बनाया जा सके । यदि इन तमाम नारियों को नारी शक्ति बनने के लिए किसी आरक्षण नामके बैसाखी की जरूरत नहीं पडी तो आगे भी नहीं पडेगी । आज जरूरत सिर्फ़ और सिर्फ़ इस बात की है नारी अपने भीतर की शक्ति को पहचाने , न सिर्फ़ पहचाने बल्कि उसे पूरे वेग से बाहर आने दे । बिना किसी की परवाह किए , बिना किसी बंदिश के , अब समय आ गया है कि आधी दुनिया कहलाने वाली शक्ति , विश्च की संचालक शक्ति बने । और ऐसा तो एक दिन होकर ही रहेगा ॥

शनिवार, 6 मार्च 2010

बेटियां क्यों पैदा होती हैं .....???

बहुत पहले ये पोस्ट लिखी थी ...जाने आज फ़िर क्यों इसे लिखने पढने और पढाने का मन किया ........................
आप सोचेंगे कि ये क्या सवाल हुआ .फ़िर तो कोई कहेगा कि क्यों निकलता है सूरज और क्यों होती है रात, क्योंबदलते हैं दिन और महीने। हाँ , हाँ हो सकता है कि आप को ये इसी तरह का एक बेतुका सवाल लगे मगर मैं ये बातयहाँ इसलिए उठा रहा हूँ क्योंकि पिछले कुछ समय से ना सिर्फ़ इस ब्लॉगजगत पर बल्कि विभिन्न माध्यमों मेंऔर बहुत से लोगों , विशेषकर महिलाओं द्वारा , ये सवाल खूब उठाया गया है, बहुत सारे तर्क-वितर्क , आकलन, विश्लेषण, आरोप खासकर पुरुषवादी मानसिकता और समाज पर हर बार उंगली उठाई जाती रही है। और कमोबेश ये कहीं ना कहीं सच तो हैं ही, मगर और भी कुछ बातें हैं जो शायद सामने नहीं आती , या कि उन्हें सामने लाया नहीं जाता।

कल यूं ही किसी ने किसी से पूछ लिया , यार ये बेटियाँ पैदा ही क्यों होती हैं, काफी देर के बहस के बाद कुछ उत्तर ऐसे मिले :-

--बेटियाँ इसलिए पैदा होती हैं, ताकि उसे पैदा करने वाली माँ को उसके पापबोध का एहसास कराया जा सके। उसेबताया जा सके कि ये उसके सभी गुनाहों की या कहें कि ख़ुद औरत के रूप में पैदा होने की सबसे बड़ी सजा है जिसकी कोई माफी नहीं है॥

बेटियाँ इसलिए पैदा होती हैं ताकि बेटों को एहसास दिलाया जा सके कि देखो इनकी तुलना में तुम्हारा महत्व हमेशा ज्यादा रहा है और रहेगा॥

बेटियाँ इसलिए भी पैदा होती हैं ताकि समाज को कोई मिल सके , कोसने के लिए, पीटने के लिए, नोचने के लिए, सहने के लिए...

बेटियाँ , और बेटियों के बाद फ़िर बेटियाँ इसलिए पैदा होती हैं कि , काश किसी बार बेटा पैदा हो जाए .....

उत्तर मिल ही रहे थे कि बीच में किसी ने टोक दिया , क्यों फालतू की मगजमारी कर रहे हो तुम्हें नहीं पता अब बेटियाँ कहाँ पैदा हो रही हैं, उन्हें तो गर्भ में ही मारा जा रहा है।

दूसरे ने कहा , तुम हर बार ये बात उठाते हो और वही पुराना राग अलापते हो मगर किसी बार ये नहीं कहते कि बेटियोंके जन्म पर सबसे ज्यादा दुःख और अफ़सोस कौन जताता है, माँ, सास , चाची , मामी और ये कन्या भ्रूण हत्या करने वाली डाक्टरनियों के अन्दर क्या किसी पुरूष का दिल और दिमाग लगा रहता है ये बहस चलती ही जारही है और आगे भी चलती रहेगी। बेटियाँ पैदा होती रहे इसी में इस संसार का अस्तित्व बचा है अन्यथा कहीं कुछ भी नहीं बचेगा.....


शुक्रवार, 5 मार्च 2010

सर्वाधिक अमीरों की सूची में एक ब्लोग्गर भी ....यार व्यंग्य न समझें इसे ..

वाह, भाई, क्या धाँसू ख़बर आए आज तो, आखिरकार मेरा सपना सच हो ही गया, हाल ही में दुनिया के सर्वाधिक अमीरों की सूची जारी करने वाली पत्रिका , फोर्ब्स, ने जो सूची जारी की है, उसमें एक ब्लॉगर का भी नाम है। पहले तो एक ये बात मेरी समझ में नहीं आती कि, ये इन पत्रिका वालों को आख़िर दूसरे की कमाई के बारे में पता कैसे चल जाता है, और वो भी बिल्कुल शत प्रतिशत, कमाल है मुझे आज तक अपना हिसाब किताब ठीक से समझ में नहीं आता। इस सूची में दुनिया भर के, एशिया के , भारत के , इस प्रकार से नाम दिए गए हैं, पता चला कि इसमें चौथे नंबर पर एयरटेल वाले भाईसाहब मित्तल बाबु का नाम भी है, मुझे खुशी हुए, कि धोखे से ही सही, कभी किसी डाऊनलोड के नाम पर , तो कभी रिंग टन के नाम पर हर महीने जो अंट शंट, पैसे वे काटते हैं उसका फल कहीं तो जा कर मिलता है, वरना क्या फायदा कि आदमी इतनी धोखाधड़ी भी करे और हाथ भी कुछ न लगे, खैर में तो ब्लॉगर की बात कर रहा था।

विश्वस्त सूत्रों , ( प्लीज सूत्रों के बारे में कभी ना पूछें ), से पता चला है कि , कुल सत्ताईस लाख पेज की इस किताब के आखिरी पन्ने पर और ९९७६९८४३२७६५६८०९८७७६८०६४४५७६८९७५९ वें स्थान पर हमारा अपने एक हिन्दी ब्लॉगर है । हाँ , हाँ मैं जानता हूँ कि आप सोच में पड़ गए होंगे कि आख़िर कौन है वो टैलेंटेड ब्लॉगर जिसने इतना प्रतिष्ठित स्थान हासिल किया, अब मैं अपने मुंह से अपना नाम कैसे लूँ समझ नहीं पा रहा हूँ, लेकिन लेना भी जरूरी है, वरना आप हमारे वरिष्ठ भाइयों के नाम से कन्फुज हो जायेंगे तो। मुझे ये तो नहीं पता कि इस सूची में नाम आने के बाद किसी के ऊपर क्या फर्क पड़ता है, ये भी नहीं कि क्हीं इसके बाद मुझे सब्जी वाला सब कुछ सोने के भाव न देना शुरू कर दे, मगर फक्र तो होता ही है न। हाँ , हाँ मुझे मालूम है कि इसके बाद कुछ लोगों को, अनाम और बे नाम लोगों को ये शिकायत हो रही होगी कि हुंह ये क्या बात हुई आख़िरी पेज पे इतने बाद नंबर आया है , उसे लेकर हाय तोबा क्यूँ मचाया जा रहा है, तो उन लोगों को मैं बता दूँ कि जब भी कोई व्यक्ति किसी भी किताब को उठाता है तो उसका पहला और आख़िरी पन्ना जरूज ही पढता है , तो जिसे, बिल गेट्स, का नाम पता होगा वो झा जी को जरूर ही जानता होगा, क्यों ठीक है न, एक और जरूरी बात ये कि इन कमबख्त बड़े लोगों, अरे जिनका नाम ऊपर है उन्हें तो हर वक्त अपने बोलीवुड के खानों की तरह अपने नंबर बढ़ने और काटने की चिंता लगी रहती है, एक हम ही हैं जिसे पता है कि चाहे जितनी तबदीली आ जाए अपना स्थान तो सत्ताईस लाखवें पेज पर फिक्स है ही।

तो बधाई हो मुझे भी और आप सबको भी आख़िर आप सबके बीच रह कर ही तो ये नामुमकिन काम मैं कर पाया वरना क्या मैं भी चाँद पर सायकल लेकर नहीं चला जाता।

बुधवार, 3 मार्च 2010

रे माधो, तू देखना,


रे माधो, तू देखना,
इक दिन ,
मैं इस चाँद का,
एक टुकडा तोड़ कर,
तेरे माटी के,
दिए में पिघलाऊंगा ॥

रे माधो, तू देखना,
इक दिन,
इन तारों को,
बुहार कर एक साथ,
रगडूंगा, तेरे आँगन में,
आतिशबाजी , करवाउंगा मैं॥

रे माधो, तू देखना,
इक दिन,
तू नहीं जायेगा,
पंचायत में हाजिरी देने,
तेरे दालान पर,
संसद का सत्र बुलवाऊंगा मैं॥

रे माधो, तू देखना,
इक दिन,
तेरे गेहूं के बने ,
जो खाते हैं, रोटी,
ब्रैड-नॉन, भठूरे,
उन सबसे ,
तुझको मिलवाउंगा मैं॥

रे माधो, तू देखना,
इक दिन,
तेरी मुनिया को,
इस स्लेट-खड़ी के साथ ,
बड़े कोन्वेन्ट में ,
पढवाउंगा मैं॥

रे माधो, तू देखना,
इक दिन,
मुझे कोई जाने न जाने ,
तुझे पहचान लेंगे सब,
कुछ ऐसा ही कर जाऊंगा मैं .....

और एक दिन ऐसा होकर रहेगा ...मुझे विश्वास है कि भारत के गांव में बसा ..माधव ही आखिरी विकल्प होगा ........

मंगलवार, 2 मार्च 2010

दैनिक ट्रिब्यून में प्रकाशित मेरा एक व्यंग्य (नए गरीबों की खोज )

( व्यंग्य को पढने के लिए उस पर चटका लगाएं और अपनी सुविधानुसार बडा करने के लिए ctrl ++ का प्रयोग करें )
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