प्रचार खिडकी

शनिवार, 20 अप्रैल 2013

छिटके, भटके ,छितरे , बिखरे ....कुछ आखर



















तुम,
उन सपनों के,
कतरों को,
संभाल के रखना यार ,
मुझे यकीन है,
इक दिन ,
बहुत याद आएंगे वे,
खुली आंखों से ...
ताउम्र तुम्हें,
रात भर नींद कहां आएगी ......................................

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ये आखें ,
बडी जीवट होती हैं ,
जागती हैं तो ,
होती है ,
मंज़िलों पर नज़र ,
और सोती हैं तो,
नींद में ,
मंज़िलों से भी,
ऊंचे ख्वाब देख जाती हैं ............

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अच्छा है,
ये कि
मेरा कहा,
अनकहा भी ,
बहुत खूब समझती हो ,
ये और अच्छा है,कि,
मेरी किताबों,
मेरे शब्दों को ,
मेरा मेहबूब समझती हो .............

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अच्छा है ,
ये कि
मेरा किया ,
अनकिया भी ,
तुम खूब समझते हो ,
तुम भी तो ,
मेरी लाली ,
मेरे पाउडर को ,
मेरा मेहबूब समझते हो


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जिंदगी तुम,
बेरहम बहुत हो ,
खुशियों और दर्द का,
बराबर हिसाब रखती हो ,
जो मुद्दतों से ,
सो भी,
नहीं पाई हैं आंखें ,
क्यूं उनमें सुनहरे ख्वाब रखती हो ....

जिंदगी तू निर्मोही बडी ........................

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अब यकीन,
हो चला है ,
कयामत तक ,
हम नहीं बदलेंगे ,
ये समाज नहीं बदलेगा ,
इंसानों की शक्ल में,
कोई हैवान है ,
हमारे भीतर ही ,
जो कल नहीं बदला , आज नहीं बदलेगा ......................

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