उस दिन अचानक ,
चलते,चलते,
पूछ बैठा,
काली पक्की सड़क से,
तुम क्यों नहीं चलती,
या कि क्यों नहीं चली जाती,
कहीं और,
वो हमेशा कि तरह,
दृढ ,और सख्त , बोली,
जो मैं चली जाऊं ,
कहीं और, तो,
तुम भी चले जाओगे,
कहीं से कहीं,
और फिर ,
कौन देगा,
उन, कच्ची पगडंडियों को ,
सहारा,
और,
टूट जायेगी आस
उन लाल ईंटों से,
बनी सड़कों की , जो,
बनना चाहती हैं ,
मुझ सी,
सख्त और श्याम॥
झोलटनमाँ
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टोकरी में जो भी होता है...उसे उडेलता रहता हूँ..मगर उसे यहाँ उडेलने के बाद उम्मीद रहती है कि....आपकी अनमोल टिप्पणियों से उसे भर ही लूँगा...मेरी उम्मीद ठीक है न.....