प्रचार खिडकी

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

क्या मैं पत्थर हो गया हूँ ?


सड़क पर,
हादसे देखता हूँ,
और पड़ोस में,
हैवानियत।

कूड़े में अपनी,
किस्मत तलाशते बच्चे,
कहीं प्यार, अपनापन,
और आश्रय तलाशते बड़े (बुजुर्ग) ।

सूखी तपती धरती,
लूटते- मरते किसान,
कच्ची मोहब्बत में,
कई दे रहे अपनी जान।

व्यस्त मगर,
बेहद छोटी जिंदगी,
चुपके से , कभी अचानक ,
आती मौत।

और भी,
कई मंजर ,
देखती हैं,
मेरी आंखें .

मगर मौन,
हैं , मन भी,
और नयन भी,


क्या मैं पत्थर हो गया हूँ ?

6 टिप्‍पणियां:

  1. ganimat hai kam se kam aap jaise log abhi bhi bache hain, jinhe ye sab dikhai to deta hai.

    sundar rachna...

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  2. भावावेग की स्थिति में अभिव्यक्ति की स्वाभाविक परिणति दीखती है। जीवन की सच्चाई को सच साबित करती एक बेहतरीन रचना के लिए बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  3. लाज़वाब रचना सुंदर भाव जो एक इंसान को सोचने पर विवश कर दे..दिल को छू लेने वाले खूबसूरत भाव..बधाई अजय भैया

    जवाब देंहटाएं
  4. पत्थर नहीं ,यथार्थ जीवन का साक्षी भाव है यह.....

    जवाब देंहटाएं
  5. गुम होती हुई संवेदना पर यह अच्छी अभिव्यक्ति है ।

    जवाब देंहटाएं

टोकरी में जो भी होता है...उसे उडेलता रहता हूँ..मगर उसे यहाँ उडेलने के बाद उम्मीद रहती है कि....आपकी अनमोल टिप्पणियों से उसे भर ही लूँगा...मेरी उम्मीद ठीक है न.....

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