प्रचार खिडकी

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

बदल रहा है ज़माना, या कि, रिश्ते बदल रहे हैं

बदल रहा है ज़माना,
या कि,
रिश्ते बदल रहे हैं॥

अब तो लाशें,
और कातिल ,
एक ही,
घर के निकल रहे हैं॥


पर्त चिकनी , हो रही है,
पाप की,
अच्छे-अच्छे,
फिसल रहे हैं॥

बंदूक और खिलोने,
एक ही,
सांचे में ढल रहे हैं॥


जायज़ रिश्तों के,
खून से सीच कर,
नाजायज़ रिश्ते,
पल रहे हैं॥

मगर फिक्र की,
बात नहीं है,
हम ज़माने के,
साथ चल रहे हैं...

बदल रहा है ज़माना,
या कि,
रिश्ते बदल रहे हैं॥

13 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सामयिक और बढिया रचना है।बधाई।

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  2. वक्त के बदलते परिवेश का अहसास कराती शानदार रचना. मगर:
    मगर फिक्र की,बात नहीं है, हम ज़माने के,साथ चल रहे हैं...
    फिक्र भी हो तो सोने पै सुहागा जिससे सच्चे रिश्तों की उम्मीद कायम रहे.

    जवाब देंहटाएं
  3. हाँ हम जमाने के साथ ही चल रहे हैं। कोशिश करेंगे कि हमारे यहाँ भी पाप और पुण्‍य एक जैसे ही दिखें।

    जवाब देंहटाएं
  4. बंदूक और खिलोने,
    एक ही,
    सांचे में ढल रहे हैं ...

    बदलते ज़माने का खाका खींच दिया आपने ......... बहुत उम्दा .......

    जवाब देंहटाएं
  5. बदल रहा है ज़माना,
    या कि,
    रिश्ते बदल रहे हैं॥
    सोचनीय प्रश्न है
    या फिर ऐसा तो नहीं
    कि हम
    जरूरत से ज्यादा
    संभल रहे हैं

    जवाब देंहटाएं
  6. मगर फिक्र की,
    बात नहीं है,
    हम ज़माने के,
    साथ चल रहे हैं...


    बदल रहा है ज़माना,
    या कि,
    रिश्ते बदल रहे हैं॥
    वाह अजय जी बेहद सुन्दर !

    जवाब देंहटाएं
  7. पर्त चिकनी , हो रही है,
    पाप की,
    अच्छे-अच्छे,
    फिसल रहे हैं॥


    बंदूक और खिलोने,
    एक ही,
    सांचे में ढल रहे हैं॥

    वाह...क्या बात कही....
    यथार्थ को तीखे शब्दों में सामने रखती बहुत ही सुन्दर रचना...

    जवाब देंहटाएं
  8. बदल रहा है ज़माना,
    या कि,
    रिश्ते बदल रहे हैं॥
    वाह अजय जी बेहद सुन्दर !

    जवाब देंहटाएं

टोकरी में जो भी होता है...उसे उडेलता रहता हूँ..मगर उसे यहाँ उडेलने के बाद उम्मीद रहती है कि....आपकी अनमोल टिप्पणियों से उसे भर ही लूँगा...मेरी उम्मीद ठीक है न.....

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