कलम उनकी,
कातिल है ,
हम रोज मरते हैं॥
कुछ कही,
और अनकही,
हम रोज पढ़ते हैं॥
कभी दोस्त,
कभी दुश्मन बनके,
हम रोज मिलते हैं॥
कभी दिखने को,
कभी बिकने को,
हम रोज सजते हैं॥
एक जगह पर,
रुक कर भी,
हम रोज चलते हैं॥
मैल बनी चमड़ी , उतरती नहीं,
वैसे तो ख़ुद को ,
हम रोज मलते हैं।
कभी अपनों से,
कभी अपने आप से,
हम रोज जलते हैं॥
नींद ख़राब है, कि सोच हमारी,
अब तो सपनो में,
हम रोज़ डरते हैं.
कातिल है ,
हम रोज मरते हैं॥
कुछ कही,
और अनकही,
हम रोज पढ़ते हैं॥
कभी दोस्त,
कभी दुश्मन बनके,
हम रोज मिलते हैं॥
कभी दिखने को,
कभी बिकने को,
हम रोज सजते हैं॥
एक जगह पर,
रुक कर भी,
हम रोज चलते हैं॥
मैल बनी चमड़ी , उतरती नहीं,
वैसे तो ख़ुद को ,
हम रोज मलते हैं।
कभी अपनों से,
कभी अपने आप से,
हम रोज जलते हैं॥
नींद ख़राब है, कि सोच हमारी,
अब तो सपनो में,
हम रोज़ डरते हैं.
मैल बनी चमड़ी , उतरती नहीं,
जवाब देंहटाएंवैसे तो ख़ुद को ,
हम रोज मलते हैं।
बेहतरीन रचना....आभार!
http://kavyamanjusha.blogspot.com/
कभी दिखने को,
जवाब देंहटाएंकभी बिकने को,
हम रोज सजते हैं॥
कटु सत्य को शब्द दे दिया आपने
शायद यही सच्चाई है
कभी दिखने को,
जवाब देंहटाएंकभी बिकने को,
हम रोज सजते हैं॥
कविता इतनी मार्मिक है कि सीधे दिल तक उतर आती है ।
नींद ख़राब है, कि सोच हमारी,
जवाब देंहटाएंअब तो सपनो में,
हम रोज़ डरते हैं.
बढ़िया आत्म निरीक्षण।
अरे नहीं अजय भईया ऐसा गजब नहीं , सबको डराने वाला खूद ही डरने लगे वह भी सपने में ये अच्छा नहीं , कविता बड़ी जानदार है ।
जवाब देंहटाएंकभी दिखने को,
जवाब देंहटाएंकभी बिकने को,
हम रोज सजते हैं॥
ये दुनिया ही ऐसी है....कौन बच पाया...बढ़िया कविता भाई
सुन्दर रचना, अच्छी लगी ।
जवाब देंहटाएंकटु सत्य को शब्द दे दिया आपने
जवाब देंहटाएंशायद यही सच्चाई है
ढेर सारी शुभकामनायें.
जवाब देंहटाएंआप ने सच को कलम के जरिये यहां लिख् दिया, बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंग़ज़ब की पोस्ट....
जवाब देंहटाएंशानदार झा जी..ये किस तरफ चले!
जवाब देंहटाएंBADHIYAA KRITI AJAY JI
जवाब देंहटाएंवाह !लाजवाब सृजन.
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