प्रचार खिडकी

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

उसको कहां खुद से अलग देखा

होगा कई,
शहरों -कस्बों ,
मैदानों-सड़कों,
का मालिक,
फ़िर भी,
चला वो,
सड़क किनारे,
नहीं बीच में,
चलते देखा॥

कहते होंगे,
उसे सभी , वो,
है बड़े,
दिल का मालिक,
पर वो तो,
हाथ मिलाता सबसे,
कभी किसी से,
नहीं गले मिलते देखा॥

मुझको लगता था,
मैं ऐसा हूँ,
दोस्तों से भी,
चिढ जाता हूँ,
पर उसको भी,
अक्सर,
यारों की,
कामयाबी पर,
जलते देखा॥

सूखी ही सही,
रोटी ही सही,
पर माँ , मुझको,
ख़ुद देती है,
उसके बच्चों ,
को तो ,
आया के हाथों,
पलते देखा॥

मुझको लगा की,
कमजोरी ने,
मुझको बूढा बना दिया,
देखा तो,
कुछ,
झुर्रियां ही,
थोड़ी कम थी,
उम्र के उस मोड़ पर,
उसको भी,
ढलते देखा॥

6 टिप्‍पणियां:

  1. दिल.. दिमाग और जाने क्या क्या जीत लिया इन पंक्तियों ने... बस अब इससे आगे कोई क्या सच कहेगा..
    जय हिंद...

    जवाब देंहटाएं
  2. देखा तो,
    कुछ,
    झुर्रियां ही,
    थोड़ी कम थी,
    उम्र के उस मोड़ पर,
    उसको भी,
    ढलते देखा॥

    -ओह! बड़ी गहरी सोच में डूबे हैं.

    जवाब देंहटाएं
  3. अजय भाई,
    कविता शानदार है...लेकिन दुनिया को हंसी बांटने वाले के इतने धीर-गंभीर अंदाज़ क्यों है आजकल...
    लगता है दो-तीन घंटे आपके साथ रहकर लाफ्टर का डबल डोज़ देना ही पड़ेगा...मैं पहले भी कह चुका हूं आपसे...बाकी दिया गल्ला छड़ो, बस दिल साफ़ होना चाहिदा...

    जय हिंद...

    जवाब देंहटाएं
  4. हाथ मिलाता सबसे,
    कभी किसी से,
    नहीं गले मिलते देखा॥
    दूरी जो बरकरार रखनी है
    बहुत सुन्दर

    जवाब देंहटाएं
  5. सूखी ही सही,
    रोटी ही सही,
    पर माँ , मुझको,
    ख़ुद देती है,
    उसके बच्चों ,
    को तो ,
    आया के हाथों,
    पलते देखा॥

    कौन खो रहा है , कौन पा रहा है ,विचारणीय है

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत सुंदर और उत्तम भाव लिए हुए.... खूबसूरत रचना......

    जवाब देंहटाएं

टोकरी में जो भी होता है...उसे उडेलता रहता हूँ..मगर उसे यहाँ उडेलने के बाद उम्मीद रहती है कि....आपकी अनमोल टिप्पणियों से उसे भर ही लूँगा...मेरी उम्मीद ठीक है न.....

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...